भारत के पूरे इतिहास में एक भी बड़ा वैज्ञानिक तुम न पाओगे। ऐसा नहीं कि
यहां बुद्धिमान और कुशल लोग न हुए, कि प्रतिभाएं नहीं जन्मीं। गणित की
आधारशिला भारत में रखी गई थी, किंतु अल्बर्ट आइंस्टीन यहां पैदा नहीं हुआ।
चमत्कारिक रूप से यह पूरा देश किसी बाह्य खोज में उत्सुक ही नहीं था। ‘पर’
की पहचान नहीं, वरन स्वयं को जानना ही यहां एकमात्र लक्ष्य रहा।
कम से कम दस हजार सालों से लाखों-करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि। उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारियां और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा। इससे एक खास किस्म का वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विषेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से तुम्हें घेरे है।
यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों का संस्पर्श होगा। हां, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे। तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से गुजर जाओगे।
यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका अस्थि-पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि-पंजर के फोटोग्राफ्स होंगे, उनका अलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया। यह स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।
एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और न ही तुम्हारे शिक्षा-संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड अथवा किसी भी देश में जाकर तुम वहां के लोगों से मिल सकते हो। वहां के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो।
लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देषों की श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध, महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया।
एक भी कबीर, फरीद या दादू पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों और सभी प्रकार के प्रतिभा-संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपॉली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो यह एकाधिकार रहा है।
ओशो
कम से कम दस हजार सालों से लाखों-करोड़ों लोग सतत एक ही प्रयास में जुटे रहे, उसके पीछे सब कुछ बलिदान कर दिया विज्ञान, तकनीकी विकास, समृद्धि। उन्होंने दरिद्रता, रुग्णता, बीमारियां और मृत्यु को भी स्वीकार कर लिया, परंतु सत्य की खोज को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा। इससे एक खास किस्म का वातावरण निर्मित हुआ, कुछ विषेष तरह की तरंगों का सागर जो चारों ओर से तुम्हें घेरे है।
यदि कोई थोड़े से भी ध्यानी चित्त को लेकर यहां आता है, तो उसे उन तरंगों का संस्पर्श होगा। हां, अगर एक पर्यटक की भांति आते हो तो तुम चूक जाओगे। तुम मंदिरों, महलों, खंडहरों को, ताजमहल, खजुराहो, और हिमालय को तो देख लोगे, पर भारत को नहीं देख पाओगे। तुम असली भारत से बिना मिले ही भारत से गुजर जाओगे।
यद्यपि वह सब ओर व्याप्त था, पर तुम संवेदनशील न थे, ग्राहक न थे। तुम कुछ ऐसा देखकर लौटोगे जो वास्तविक भारत नहीं, सिर्फ उसका अस्थि-पंजर है, आत्मा नहीं। तुम्हारे पास उस अस्थि-पंजर के फोटोग्राफ्स होंगे, उनका अलबम बनाओगे और सोचोगे कि भारत घूम आए, भारत को जान लिया। यह स्वयं को धोखा दे रहे हो तुम।
एक आध्यात्मिक पहलू भी है। न तो तुम्हारे कैमरा उसके चित्र लेने में, और न ही तुम्हारे शिक्षा-संस्कार उसे पकड़ने में सक्षम हैं। जर्मनी, इटली, फ्रांस, इंग्लैंड अथवा किसी भी देश में जाकर तुम वहां के लोगों से मिल सकते हो। वहां के भूगोल से, इतिहास और अतीत से भलीभांति परिचित हो सकते हो।
लेकिन जहां तक भारत का प्रश्न है, ऐसा नहीं किया जा सकता। यदि अन्य देषों की श्रेणी में भारत को गिना, तो प्रारंभ से ही तुमने चूक कर दी, क्योंकि उन देशों में वैसा आध्यात्मिक आभामंडल नहीं है। उन्होंने एक भी गौतम बुद्ध, महावीर, नेमीनाथ और आदिनाथ को जन्म नहीं दिया।
एक भी कबीर, फरीद या दादू पैदा नहीं किया। उन्होंने बड़े वैज्ञानिकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों और सभी प्रकार के प्रतिभा-संपन्न व्यक्तियों को तो पैदा किया, पर रहस्यदर्शी ऋषि भारत की मोनोपॉली है, एकाधिकार है, कम से कम अभी तक तो यह एकाधिकार रहा है।
ओशो
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