अंग्रेजी में शब्द है, पर्सनेलिटी। वह बहुत कीमती शब्द है। यूनान में जो नाटक होते थे, उन नाटकों में पात्रों को अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाना पड़ता था। उस मुखौटे का नाम परसोना होता था। और उसी शब्द परसोना से पर्सनैलिटी बना है। पर्सनैलिटी का अर्थ है, ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व, ओढ़ा हुआ मुखौटा। जो आप नहीं हैं, वैसा चेहरा।
तो जो व्यक्ति अपने भीतर की प्रकृति के विपरीत होता है, अनिवार्य रूप से उसे उस प्रकृति के विपरीत एक मुखौटा निर्मित करना होता है। एक व्यक्तित्व की खोल अपने चारों तरफ बना लेता है। यह खोल अंतरात्मा से मिलन न होने देगी। निसर्ग आपके खिलाफ नहीं है, लेकिन आपका व्यक्तित्व आपके खिलाफ है। और हर आदमी व्यक्तित्व बनाए हुए है, और उसको मजबूत किए चला जाता है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आत्मा को जानना है, लेकिन व्यक्तित्व को छोड़ने की जरा भी तैयारी नहीं होती। वे अपने व्यक्तित्व को पकड़ कर ही आत्मा को पाना चाहते हैं! यह असंभव है। इस व्यक्तित्व को ठीक से समझ लेना जरूरी है, तो ही आप आत्मा की खोज में आगे बढ़ सकेंगे, अन्यथा आप हमेशा भटकते रहेंगे। क्योंकि जिसको आपने पकड़ा है, वही तो बाधा है।
ऐसा समझ लें कि एक आदमी जेल के बाहर आना चाहता है, और जेल की दीवालों को जोर से पकडे हुए है, और कहता है कि ये दीवालें मैं कभी न छोडूंगा, क्योंकि इन दीवालों के साथ मैं इतने दिन रहा हूं। अपनी ही जंजीरों को तोड्ने के लिए राजी नहीं है! कहता है, ये मेरे आभूषण हैं, ये बड़े कीमती हैं! और कहता है, इन आभूषणों के बिना तो मैं सो भी न सकूंगा! इनके बिना तो मुझे नींद भी न आएगी। इनके बिना तो मुझे खाली खाली, नंगापन मालूम पड़ेगा! इनको मैं नहीं छोड़ सकता। लेकिन मुझे स्वतंत्र होना है, मुझे मुक्त होना है! आपकी अवस्था ऐसी ही है। जिसको आप बचाना चाहते हैं, वही है दीवाल। और उसको तोड़े बिना आप अंतरात्मा में प्रवेश न कर पाएंगे।
समझें।
‘अपनी अंतरात्मा का पूर्णरूप से सम्मान करो। क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा वह प्रकाश प्राप्त होता है, जो जीवन को आलोकित कर सकता है और तुम्हारी आंखों के समक्ष स्पष्ट कर सकता है। समझने में कठिन केवल एक ही वस्तु है—स्वयं तुम्हारा अपना हृदय। जब तक व्यक्तित्व के बंधन ढीले नहीं होते, तब तक आत्मा का गहन रहस्य खुलना संभव नहीं होता है।’
क्या हैं व्यक्तित्व के बंधन? हम सब पैदा होते हैं। अनिवार्यरूपेण समाज, परिवार, शिक्षा हमें उपलब्ध होती है, संस्कार उपलब्ध होते हैं, धारणाएं उपलब्ध होती हैं। कैसे जीना, कैसे उठना, कैसे बैठना, क्या ठीक है, क्या गलत है-सब हमें रेडीमेड मिलता है। फिर हम उसके अनुसार बड़े होते हैं। और हमें उसके अनुसार ही बड़ा होना पड़ता है। क्योंकि जिनके बीच हम बड़े हो रहे हैं, वे शक्तिशाली हैं। वे जो भी सिखा रहे हैं, वह हमें सीखना ही पड़ेगा। क्योंकि अगर हम न सीखेंगे तो वे हमें जिंदा ही न रहने देंगे। उनकी धारणाएं हमें माननी ही पड़ेगी, क्योंकि उनका दबाव चारों तरफ है, वे शक्तिशाली हैं। समाज उनका है, अधिकार उनका है, ताकत उनकी है, राज्य उनका है। वे सब तरफ से एक छोटे बच्चे को जो भी मनवाना चाहते हैं, मनवा देंगे। फिर यह बच्चा बड़ा होगा एक व्यक्तित्व को ले कर, जो दूसरों ने इसे दिया है। इस व्यक्तित्व के सहारे आज नहीं कल, इसको भयंकर पीड़ा और संताप पैदा होगा। क्योंकि यह झूठा है। झूठ से पीड़ा पैदा होती है।
आनंद तो केवल सत्य से पैदा हो सकता है, जो तुम्हारा स्वभाव है उससे ही। तो फिर यह खोज में लगेगा अध्यात्म की, परमात्मा की, ज्ञान की, योग की, ध्यान की। लेकिन इसे यह खयाल ही नहीं है कि यह जो व्यक्तित्व है, इसे तोड़ना पड़ेगा। यह जैसे एक खोल की तरह तुम्हारे झरने के चारों तरफ हो गया है। जैसे एक पत्थर की तरह तुम्हारे झरने को रोके हुए है। पर यह चाहेगा कि इस व्यक्तित्व को ले कर ही परमात्मा तक पहुंच जाए और शांति तक पहुंच जाए, तो अड़चन है।
साधनसूत्र
ओशो
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