नसरुद्दीन के संबंध में एक मजाक बहुत जाहिर है। एक तारों वाला वाद्य उठा
लाया था फकीर नसरुद्दीन। पर उस वाद्य की गर्दन पर एक ही जगह उंगली रख कर,
और रगड़ता रहता था तारों को। पत्नी परेशान हुई। एक दिन, दो दिन, चार दिन, आठ
दिन। उसने कहा, क्षमा करिए, यह कौन सा संगीत आप पैदा कर रहे हैं? मोहल्ले
के लोग भी बेचैन और परेशान हो गए। आधी-आधी रात और वह एक ही तूंत्तूं, एक ही
बजती रहती थी।
आखिर सारे लोग इकट्ठे हो गए। कहा, नसरुद्दीन, अब बंद करो! बहुत देखे बजाने वाले, तुम भी एक नए बजाने वाले मालूम पड़ते हो! हमने बड़े-बड़े बजाने वाले देखे। आदमी हाथ को इधर-उधर भी सरकाता है, कुछ और आवाज भी निकालता है। यह क्या तूंत्तूं तुम एक ही लगाए रखते हो; सिर पका जा रहा है। मोहल्ला छोड़ने का विचार कर रहे हैं। या तो तुम छोड़ दो, या हम! मगर इतना तो बता दो कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और यह एक ही आवाज? ऐसा तो हमने कोई संगीतज्ञ नहीं देखा।
नसरुद्दीन ने कहा कि वे लोग अभी ठीक स्थान खोज रहे हैं, मैं पहुंच गया हूं। नीचे-ऊपर हाथ फिरा कर ठीक जगह खोज रहे हैं कि कहां ठहर जाएं। हम पहुंच गए हैं। हम तो वही बजाएंगे। मंजिल आ गई।
यह मजाक था नसरुद्दीन का। लेकिन उस आदमी ने बड़े गहरे और कीमती मजाक किए हैं। अगर परमात्मा कोई स्वर बजाता होगा, तो एक ही होगा। हाथ उसका इधर-उधर न सरकता होगा। वहां कोई धारा न बहती होगी, वहां कोई परिवर्तन न होगा।
लाओत्से कहता है, एकरस नहीं है वह, जो हम बोल सकते हैं; जो आदमी उच्चारित कर सकता है, वह उसका नाम नहीं है। अंतिम रूप से इस सूत्र में एक बात और समझ लें। शब्द हो, नाम हो, सब मन से पैदा होते हैं। सारी सृष्टि मन की है। मन ही निर्मित करता और बनाता है। और मन अज्ञान है। मन को कुछ भी पता नहीं। लेकिन जो मन को पता नहीं है, मन उसको भी निर्मित करता है। निर्मित करके एक तृप्ति हमें मिलती है कि अब हमें पता है।
अगर मैं आपसे कहूं, आपको ईश्वर का कोई भी पता नहीं है, तो बड़ी बेचैनी पैदा होती है। लेकिन मैं आपसे कहूं कि अरे आपको बिलकुल पता है, आप जो सुबह राम-राम जपते हैं, वही तो है ईश्वर का नाम, मन को राहत मिलती है। अगर मैं आपसे कहूं, नहीं, कोई उसका नाम नहीं, और जो भी नाम तुमने लिया है, ध्यान रखना, उससे उसका कोई भी संबंध नहीं है, तो मन बड?ी बेचैनी में, वैक्यूम में, शून्य में छूट जाता है। उसे कोई सहारा नहीं मिलता खड़े होने को, पकड़ने को। और मन जल्दी ही सहारे खोजेगा। सहारा मिल जाए, तो फिर और आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
मन सब्स्टीटयूट देता है सत्य के, सत्य की परिपूरक व्यवस्था कर देता है। कहता है, यह रहा, इससे काम चल जाएगा। और जो मन पर रुक जाते हैं, वे उन पथों पर रुक जाएंगे जो आदमी के बनाए हुए हैं, उन शास्त्रों पर रुक जाएंगे जो आदमी के निर्मित, और उन नामों पर रुक जाएंगे जिनका परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं है।
ताओ उपनिषद
ओशो
आखिर सारे लोग इकट्ठे हो गए। कहा, नसरुद्दीन, अब बंद करो! बहुत देखे बजाने वाले, तुम भी एक नए बजाने वाले मालूम पड़ते हो! हमने बड़े-बड़े बजाने वाले देखे। आदमी हाथ को इधर-उधर भी सरकाता है, कुछ और आवाज भी निकालता है। यह क्या तूंत्तूं तुम एक ही लगाए रखते हो; सिर पका जा रहा है। मोहल्ला छोड़ने का विचार कर रहे हैं। या तो तुम छोड़ दो, या हम! मगर इतना तो बता दो कि तुम जैसा बुद्धिमान आदमी और यह एक ही आवाज? ऐसा तो हमने कोई संगीतज्ञ नहीं देखा।
नसरुद्दीन ने कहा कि वे लोग अभी ठीक स्थान खोज रहे हैं, मैं पहुंच गया हूं। नीचे-ऊपर हाथ फिरा कर ठीक जगह खोज रहे हैं कि कहां ठहर जाएं। हम पहुंच गए हैं। हम तो वही बजाएंगे। मंजिल आ गई।
यह मजाक था नसरुद्दीन का। लेकिन उस आदमी ने बड़े गहरे और कीमती मजाक किए हैं। अगर परमात्मा कोई स्वर बजाता होगा, तो एक ही होगा। हाथ उसका इधर-उधर न सरकता होगा। वहां कोई धारा न बहती होगी, वहां कोई परिवर्तन न होगा।
लाओत्से कहता है, एकरस नहीं है वह, जो हम बोल सकते हैं; जो आदमी उच्चारित कर सकता है, वह उसका नाम नहीं है। अंतिम रूप से इस सूत्र में एक बात और समझ लें। शब्द हो, नाम हो, सब मन से पैदा होते हैं। सारी सृष्टि मन की है। मन ही निर्मित करता और बनाता है। और मन अज्ञान है। मन को कुछ भी पता नहीं। लेकिन जो मन को पता नहीं है, मन उसको भी निर्मित करता है। निर्मित करके एक तृप्ति हमें मिलती है कि अब हमें पता है।
अगर मैं आपसे कहूं, आपको ईश्वर का कोई भी पता नहीं है, तो बड़ी बेचैनी पैदा होती है। लेकिन मैं आपसे कहूं कि अरे आपको बिलकुल पता है, आप जो सुबह राम-राम जपते हैं, वही तो है ईश्वर का नाम, मन को राहत मिलती है। अगर मैं आपसे कहूं, नहीं, कोई उसका नाम नहीं, और जो भी नाम तुमने लिया है, ध्यान रखना, उससे उसका कोई भी संबंध नहीं है, तो मन बड?ी बेचैनी में, वैक्यूम में, शून्य में छूट जाता है। उसे कोई सहारा नहीं मिलता खड़े होने को, पकड़ने को। और मन जल्दी ही सहारे खोजेगा। सहारा मिल जाए, तो फिर और आगे खोजने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
मन सब्स्टीटयूट देता है सत्य के, सत्य की परिपूरक व्यवस्था कर देता है। कहता है, यह रहा, इससे काम चल जाएगा। और जो मन पर रुक जाते हैं, वे उन पथों पर रुक जाएंगे जो आदमी के बनाए हुए हैं, उन शास्त्रों पर रुक जाएंगे जो आदमी के निर्मित, और उन नामों पर रुक जाएंगे जिनका परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं है।
ताओ उपनिषद
ओशो
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