जैसे ही आप लड़ाई के बाहर खड़े होते हैं, वैसे ही आपको दिखाई पड़ता है कि
आप किस पागलपन में पड़े थे। काम से ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य से काम आप घडी
के पेंडुलम की तरह घूम रहे थे। पहले पेंडुलम बाईं तरफ गया, तब आप सोचते थे
कि बाईं तरफ जा रहा है। लेकिन आपको पता नहीं, बाईं तरफ जाते समय पेंडुलम
दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है। वह बाईं तरफ जा इसलिए रहा है
ताकि दाईं तरफ जा सके, मोमेंटम इकट्ठा कर रहा है। घड़ी की यंत्र व्यवस्था यह
है कि बाईं तरफ पेंडुलम जब जा रहा है, तो आपको दिखाई पड़ता है कि बाएं जा
रहा है, लेकिन आपको पता नहीं कि वह दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा
है। जितना वह बायां जाएगा, उतना ही दायां जा सकेगा अब। फिर वह दाएं जा रहा
है, तो आप सोचते हैं, विपरीत जा रहा है। लेकिन जब वह दाएं जा रहा है, तो
पुन: बाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है।
इसका अर्थ, जब आप ब्रह्मचर्य के विचार से भरते हैं, तब आप कामातुर होने की शक्ति इकट्ठी कर रहे हैं। जब आप उपवास का विचार करते हैं, तब आप भोजन का रस पुन: पैदा कर रहे हैं। अगर आप भोजन ही करते जाएं, भोजन ही करते जाएं, तो भोजन का रस समाप्त हो जाएगा। बीच में उपवास जरूरी है। उससे भोजन का रस पुनः-पुन: पैदा होता है। अगर आपको कोई भोजन करवाता ही चला जाए, तो आप घबड़ा उठेंगे, आप भोजन के दुश्मन हो जाएंगे। अगर कोई आपको कामवासना में डाल दे ऐसा कि आपको कामवासना में ही पड़ा रहना पड़े, तो आप ऐसे भागेंगे उस जगह से, कि लौट कर रुकेंगे नहीं, लौट कर देखेंगे नहीं। बीच में गैप चाहिए।
काम कृत्य किया, फिर दो दिन का उपवास रहा, ब्रह्मचर्य रहा। उस ब्रह्मचर्य में आप फिर काम कृत्य में उतरने का रस इकट्ठा कर लेंगे। इस अंतर यांत्रिकता को आप नहीं समझेंगे, तो आप लड़ते रहेंगे और कभी मुक्त न हो पाएंगे। आपकी ब्रह्मचर्य की बातें काम रस को पैदा करने वाली हैं। उससे स्वाद पुन: जन्मता है।
इससे विपरीत भी सच है। आपका काम कृत्य में उतरना, पुन: ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण बना देता है। काम कृत्य में उतर कर फिर आप पश्चात्ताप करते हैं। और फिर आपका मन बड़ा साधु महात्मा जैसा हो जाता है। क्रोध करके आप पश्चात्ताप करते हैं। और आप सोचते हैं कि आपका पश्चात्ताप क्रोध के विपरीत है। नहीं, आपका पश्चात्ताप आपको पुन: क्रोध करने की शक्ति देता है। इसलिए जो पश्चात्ताप करते हैं, वे क्रोध करते रहेंगे। वे कभी मुक्त नहीं हो सकते।
पश्चात्ताप क्रोध का दुश्मन नहीं है, क्रोध का मित्र है। अगर आप पश्चात्ताप छोड़ दें, आपका क्रोध खतम हो जाए। लेकिन आप पश्चात्ताप छोड़ेंगे नहीं। और क्रोध के बाद आप बड़ा मजा लेते हैं कि पश्चाताप कर रहे हैं, अब अक्रोधी हुए जा रहे हैं। आपको पता नहीं कि वह क्रोध के कारण जो पेंडुलम एक तरफ चला गया है, अब पश्चात्ताप में दूसरी तरफ जाएगा! और फिर से क्रोध की तरफ जाने की शक्ति अर्जित हो जाएगी!
विपरीत का सहारा है। विपरीत के कारण रस निर्मित होता है। इसलिए आप के स्वाद बदलते हैं। जो लोग मन की खोज करते हैं, उनके निर्णय बड़े भिन्न हैं। आप सोचते हैं कि जब आप स्वाद बदलते हैं, तो आप शायद पहले स्वाद से दुश्मन हो रहे हैं। नहीं, आप पहले स्वाद को पुन: अर्जित करने की कोशिश कर रहे हैं।
जीवन के सभी तलों पर यह बात गहरे रूप में सच है। तो आप जो विपरीत में डोलते रहते हैं, तो उसमें आप यह मत समझना कि कभी कभी आप बड़े साधु चित्तवान हो जाते हैं। और बड़े ब्रह्मचर्य की धारणा आ जाती है और बड़ी ज्ञान की और आत्मज्ञान की बातें उठने लगती हैं। वह कुछ भी नहीं है, आपके देह भाव में लौटने का उपाय है। जब आप आत्मा वगैरह की बहुत बातें करने लगते हैं, उसका कुल मतलब इतना है कि देह से ऊब गए हैं, अब थोड़ी आत्मा की बातें करके देह में लौटने में रस आएगा। पर इन दोनों से भिन्न भी एक बिंदु आदमी के भीतर है और वही विजय का सूत्र है।
वह बिंदु है, साक्षीभाव।
साधनासूत्र
ओशो
इसका अर्थ, जब आप ब्रह्मचर्य के विचार से भरते हैं, तब आप कामातुर होने की शक्ति इकट्ठी कर रहे हैं। जब आप उपवास का विचार करते हैं, तब आप भोजन का रस पुन: पैदा कर रहे हैं। अगर आप भोजन ही करते जाएं, भोजन ही करते जाएं, तो भोजन का रस समाप्त हो जाएगा। बीच में उपवास जरूरी है। उससे भोजन का रस पुनः-पुन: पैदा होता है। अगर आपको कोई भोजन करवाता ही चला जाए, तो आप घबड़ा उठेंगे, आप भोजन के दुश्मन हो जाएंगे। अगर कोई आपको कामवासना में डाल दे ऐसा कि आपको कामवासना में ही पड़ा रहना पड़े, तो आप ऐसे भागेंगे उस जगह से, कि लौट कर रुकेंगे नहीं, लौट कर देखेंगे नहीं। बीच में गैप चाहिए।
काम कृत्य किया, फिर दो दिन का उपवास रहा, ब्रह्मचर्य रहा। उस ब्रह्मचर्य में आप फिर काम कृत्य में उतरने का रस इकट्ठा कर लेंगे। इस अंतर यांत्रिकता को आप नहीं समझेंगे, तो आप लड़ते रहेंगे और कभी मुक्त न हो पाएंगे। आपकी ब्रह्मचर्य की बातें काम रस को पैदा करने वाली हैं। उससे स्वाद पुन: जन्मता है।
इससे विपरीत भी सच है। आपका काम कृत्य में उतरना, पुन: ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण बना देता है। काम कृत्य में उतर कर फिर आप पश्चात्ताप करते हैं। और फिर आपका मन बड़ा साधु महात्मा जैसा हो जाता है। क्रोध करके आप पश्चात्ताप करते हैं। और आप सोचते हैं कि आपका पश्चात्ताप क्रोध के विपरीत है। नहीं, आपका पश्चात्ताप आपको पुन: क्रोध करने की शक्ति देता है। इसलिए जो पश्चात्ताप करते हैं, वे क्रोध करते रहेंगे। वे कभी मुक्त नहीं हो सकते।
पश्चात्ताप क्रोध का दुश्मन नहीं है, क्रोध का मित्र है। अगर आप पश्चात्ताप छोड़ दें, आपका क्रोध खतम हो जाए। लेकिन आप पश्चात्ताप छोड़ेंगे नहीं। और क्रोध के बाद आप बड़ा मजा लेते हैं कि पश्चाताप कर रहे हैं, अब अक्रोधी हुए जा रहे हैं। आपको पता नहीं कि वह क्रोध के कारण जो पेंडुलम एक तरफ चला गया है, अब पश्चात्ताप में दूसरी तरफ जाएगा! और फिर से क्रोध की तरफ जाने की शक्ति अर्जित हो जाएगी!
विपरीत का सहारा है। विपरीत के कारण रस निर्मित होता है। इसलिए आप के स्वाद बदलते हैं। जो लोग मन की खोज करते हैं, उनके निर्णय बड़े भिन्न हैं। आप सोचते हैं कि जब आप स्वाद बदलते हैं, तो आप शायद पहले स्वाद से दुश्मन हो रहे हैं। नहीं, आप पहले स्वाद को पुन: अर्जित करने की कोशिश कर रहे हैं।
जीवन के सभी तलों पर यह बात गहरे रूप में सच है। तो आप जो विपरीत में डोलते रहते हैं, तो उसमें आप यह मत समझना कि कभी कभी आप बड़े साधु चित्तवान हो जाते हैं। और बड़े ब्रह्मचर्य की धारणा आ जाती है और बड़ी ज्ञान की और आत्मज्ञान की बातें उठने लगती हैं। वह कुछ भी नहीं है, आपके देह भाव में लौटने का उपाय है। जब आप आत्मा वगैरह की बहुत बातें करने लगते हैं, उसका कुल मतलब इतना है कि देह से ऊब गए हैं, अब थोड़ी आत्मा की बातें करके देह में लौटने में रस आएगा। पर इन दोनों से भिन्न भी एक बिंदु आदमी के भीतर है और वही विजय का सूत्र है।
वह बिंदु है, साक्षीभाव।
साधनासूत्र
ओशो
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