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Sunday, August 23, 2015

क्षत्रिय बहिर्मुखता का प्रतीक है, ब्राह्मण अंतर्मुखता का प्रतीक है। फिर शूद्र और वैश्य किस कोटि में हैं?

अंतर्मुखता अगर पूरी खिल जाए, तो ब्राह्मण फलित होता है; अंतर्मुखता अगर खिले ही नहीं, तो शूद्र फलित होता है। बहिर्मुखता पूरी खिल जाए, तो क्षत्रिय फलित होता है, बहिर्मुखता खिले ही नहीं, तो वैश्य फलित होता है। इसे ऐसा समझें। एक रेंज है अंतर्मुखी का, एक श्रृंखला है, एक सीढ़ी है। अंतर्मुखता की सीढ़ी के पहले पायदान पर जो खड़ा है, वह शूद्र है, और अंतिम पायदान पर जो खड़ा है, वह ब्राह्मण है। बहिर्मुखता भी एक सीढ़ी है। उसके प्रथम पायदान पर जो खड़ा है, वह वैश्य है, और उसके अंतिम पायदान पर जो खड़ा है, वह क्षत्रिय है।
यहां जन्म से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की मैं बात नहीं कर रहा हूं। मैं व्यक्तियों के टाइप की बात कर रहा हूं। ब्राह्मणों में शूद्र पैदा होते हैं, शूद्रों में ब्राह्मण पैदा होते हैं। क्षत्रियों में वैश्य पैदा हो जाते हैं, वैश्यों में क्षत्रिय पैदा हो जाते हैं।


 यहां मैं जन्मजात वर्ण की बात नहीं कर रहा हूं। यहां मैं वर्ण के मनोवैज्ञानिक तथ्य की बात कर रहा हूं।


इसलिए यह भी ध्यान में रखने जैसा है कि ब्राह्मण जब भी नाराज होगा किसी पर, तो कहेगा, शूद्र है तू! और क्षत्रिय जब भी नाराज होगा, तो कहेगा, बनिया है तू! कभी सोचा है? क्षत्रिय की कल्पना में बनिया होना नीचे से नीची बात है। ब्राह्मण की कल्पना में शूद्र होना नीचे से नीची बात है। क्षत्रिय की कल्पना अपनी ही बहिर्मुखता में जो निम्नतम सीढ़ी देखती है, वह वैश्य की है। इसलिए अगर क्षत्रिय पतित हो तो वैश्य हो जाता है, और अगर वैश्य विकसित हो तो क्षत्रिय हो जाता है।

इसकी बहुत घटनाएं घटीं। और कभीकभी जब कोई व्यक्ति समझ नहीं पाता अपने टाइप को, अपने व्यक्तित्व को, अपने स्वधर्म को, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। महावीर क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति अंतर्मुखी थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। बुद्ध क्षत्रिय घर में पैदा हुए, लेकिन वे व्यक्ति ब्राह्मण थे और उनकी यात्रा ब्राह्मण की थी। इसलिए बुद्ध ने बहुत जगह कहा है कि मुझसे बड़ा ब्राह्मण और कोई भी नहीं है। लेकिन बुद्ध ने ब्राह्मण की परिभाषा और की है। बुद्ध ने कहा, जो ब्रह्म को जाने, वह ब्राह्मण है।

मेरे देखे, जन्म से सारे लोग दो तरह के होते हैं - शूद्र और वैश्य। उपलब्धि से, एचीवमेंट से दो तरह के हो जाते हैं -ब्राह्मण और क्षत्रिय। जो विकसित नहीं हो पाते, वे पिछली दो कोटियों में रह जाते हैं। वर्ण तो दो ही हैं।
अगर सारे लोग विकसित हों, तो जगत में दो ही वर्ण होंगे— बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। लेकिन जो विकसित नहीं हो पाते, वे भी दो वर्ण निर्मित कर जाते हैं। इसलिए चार वर्ण निर्मित हुए : दो, जो विकसित हो जाते हैं; दो, जो विकसित नहीं हो पाते और पीछे छूट जाते हैं।

क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की आकांक्षा है, ब्राह्मण की आकांक्षा शाति की आकांक्षा है। क्षत्रिय की आकांक्षा शक्ति की है। और अगर क्षत्रिय न हो पाए कोई वैश्य रह जाए। तो बहुत भयभीत, डरा हुआ, कायर व्यक्तित्व होता है वैश्य का, लेकिन बीज उसके पास क्षत्रिय के हैं, इसलिए शक्ति की आकांक्षा भी नहीं छूटती। लेकिन क्षत्रिय होकर शक्ति को पा भी नहीं सकता। इसलिए वैश्य फिर धन के द्वारा शक्ति को खोजता है। वह धन के द्वारा शक्ति को निर्मित करने की कोशिश करता है। लड़ तो नहीं सकता, युद्ध के मैदान पर नहीं हो सकता, हाथ में तलवार नहीं ले सकता, लेकिन तिजोरी तो ली जा सकती है और तलवारें खरीदी जा सकती हैं। इसलिए इनडाइरेक्टली धन की आकांक्षा, शक्ति की आकांक्षा है-परोक्ष, पीछे के रास्ते से, भयभीत रास्ते से।

यह मैं जो कह रहा हूं वह इसलिए कह रहा हूं ताकि यह खयाल आ सके कि भारत की वर्ण की धारणा के पीछे बड़े मनोवैज्ञानिक खयाल थे। मनोवैज्ञानिक खयाल यह था कि प्रत्येक व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि उसका टाइप क्या है, ताकि उसकी आगे जीवन की यात्रा व्यर्थ यहां—वहा न भटक जाए; वह यहां—वहां न डोल जाए। वह समझ ले कि वह अंतर्मुखी है कि बहिर्मुखी है, और उस यात्रा पर चुपचाप निकल जाए। एक क्षण भी खोने के योग्य नहीं है। और जीवन का अवसर एक बार खोया जाए, तो न मालूम कितने जन्मों के लिए खो जाता है। व्यक्तित्व ठीक से साधना में उतरे, यह जरूरी है।
 
इसलिए मैंने कहा, अगर आप बहिर्मुखी हैं, तो या तो आप वैश्य हो सकते हैं या क्षत्रिय हो सकते हैं। अंतर्मुखी हैं, तो या शूद्र हो सकते हैं या ब्राह्मण हो सकते हैं। ये पोलेरिटीज हैं, ये ध्रुवताएं हैं। लेकिन शूद्र होना तो प्रकृति से ही हो जाता है, ब्राह्मण होना उपलब्धि है। वैश्य होना प्रकृति से ही हो जाता है, क्षत्रिय होना उपलब्धि है।

गीता दर्शन

ओशो 



 

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