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Friday, August 14, 2015

साधना के जीवन में अभय, फियरलेसनेस पहली शर्त है।

जो उसका साहस नहीं कर सकता है, वह अपने भीतर भी नहीं जा सकता है।

अंधेरी रातों में, अंधेरे और अनजान और बीहड़ रास्तों पर अकेले जाने में जिस साहस, करेज की जरूरत है, उससे भी कहीं ज्यादा साहस स्वयं के भीतर जाने के लिए करना होता है, क्योंकि इस प्रवेश से स्वयं के संबंध में ही खड़े किए हुए मधुर स्वप्न टूटते हैं, और ऐसी कुरूपताओं और घिनौने पापों का साक्षात करना होता है, जिनकी कि मैंने स्वयं से बिलकुल निवृत्ति ही मान ली थी।

पर साहस से जो अपने को उघाड़ता है, और उन अंधी गलियों और अंधेरे गलियारों में प्रवेश करता है, जो उसके ही भीतर है; पर जिन पर उसने जाना बंद कर दिया है, तो एक अभिनव जीवन का प्रारंभ हो जाता है। एक ऐसी यात्रा इस अंधेरे में जाने के साहस से प्रारंभ होती है, जिसकी अंतिम परिणति पर वह आलोक उपलब्ध होता है जिसकी कि हम जन्म जन्म से खोज में थे, पर अंधेरे में जाने के साहस के अभाव के कारण जिससे वंचित थे।
अंधेरा आलोक को छिपाए हुए है, जैसे राख अंगारे को छिपाए हो। अंधेरे को चीरते ही उसके दर्शन होंगे, जो कि अंधेरा नहीं है।  इससे कहता हूं कि यदि आलोक को पाना है, तो अंधेरे से मत डरो। जो अंधेरे से डरता है, वह आलोक को कभी भी नहीं पा सकता है।

आलोक का मार्ग अंधेरे से होकर जाता है। अंधेरे में प्रवेश का साहस ही वस्तुत: भीतर आलोक बन जाता है। उस साहस से ही वह जागता है, जो कि सोया है। मैं देखता हूं कि आप आत्म ज्ञान के लिए तो आकांक्षी हैं, पर अपने आपको जैसे आप हैं, उसे जानने से डरते हैं। आत्मा सच्चिदानंद है, नित्य शुद्ध बुद्ध है, ऐसी बातें सुन कर आपको अच्छा लगता है। यह भी इसलिए कि इस भांति आप जो हैं  सच्चिदानंद, शुद्ध बुद्ध स्थिति के बिलकुल विपरीत, और दूसरे छोर पर उसे विस्मृत करने में और अपने अहंकार को परिपुष्ट करने में आपको सुविधा और सहायता मिलती है।

साधुओं के पास पापियों की भीड़ इसीलिए इकट्ठी हो जाती है, क्योंकि वहां आत्मा की शुद्धता और स्वयं के ब्रह्म होने की बातें उन्हें बहुत प्रीतिकर लगती हैं। उन बातों को सुन कर उनका पश्चात्ताप कम हो जाता है, और हीनता दब जाती है और वे स्वयं के समक्ष फिर सीधे खड़े हो जाने में समर्थ हो जाते हैं। इसका एक ही परिणाम होता है कि वे पाते हैं कि पाप करना आसान होता जाता है, क्योंकि आत्मा तो शुद्ध है!

आत्मा को शुद्ध बुद्ध मान लेने से पापों का अंत नहीं होता है। वह बहुत गहरी आत्म वंचना है। वह मनुष्य बुद्धि की अंतिम तरकीब है।

अंधकार है ही नहीं, ऐसा मानने से आलोक नहीं हो जाता है।

पाप है ही नहीं, आत्मा कुछ करती ही नहीं है, ऐसी विचार सरणि बहुत धोखे की है। वह स्वयं की पाप  स्थिति को विस्मरण करने का उपाय है। उससे पाप मिटते नहीं, केवल विस्मृत हो जाते हैं, जो कि पाप के होने से भी बुरा है। उनका दिखना, उनका बोध शुभ है; उनका न दिखना, उनके प्रति मूर्च्छा अशुभ है। क्योंकि वे दिखते हैं तो चुभते हैं, सालते हैं और स्वयं के परिवर्तन की प्रेरणा उत्पन्न करते हैं। पाप का बोध परिवर्तन लाता है, और उसका पूर्ण बोध तो तत्‍क्षण क्रांति पैदा कर देता है।

साधनापथ

ओशो 

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