अभी बंबई में एक वृद्ध महिला को संन्यास लेना था। मरने के एक दिन पहले
वह मुझसे मिलकर गई और उसने कहा कि अगले जन्मदिन पर मैं ले लूं, तो हर्ज तो
नहीं? मैंने कहा, मुझे कोई हर्ज नहीं। पर मेरा क्या पक्का कि मैं बचूंगा।
उससे मैंने नहीं कहा; वह नाराज हो जाए! उसने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसी आप
क्यों बात करते हैं! आप तो जरूर बचेंगे। मैंने कहा, समझ लो कि मैं बच भी
गया, लेकिन तुम बचोगी, इसका कोई पक्का? उसने कहा, अभी हुआ ही क्या है! अभी
मेरी सत्तर साल की ही तो उम्र है। सत्तर की तो मेरी उम्र ही है, उसने कहा।
अभी तो मैं सब तरह से स्वस्थ हूं! मैंने कहा, मान लो यह भी हुआ कि तुम भी
बच गईं, मैं भी बच गया, लेकिन तुम संन्यास लोगी ही सालभर बाद, तुम्हारा मन
संन्यास लेने का रहेगा, इसका कुछ पक्का? उसने कहा, क्यों नहीं रहेगा? मैंने
कहा, मान लो तुम्हारा भी रहा, मेरा देने का न रहा, तो तुम क्या करोगी?
उसने कहा, आप भी कहां की बातें करते हैं! अगले जन्मदिन का पक्का रहा। मैंने
कहा, अगर अगला जन्मदिन पक्का है, तो ठीक।
लेकिन दूसरे दिन सुबह ही, मेरी सभा में ही आते हुए, सभा-भवन के सामने ही कार से टकराकर बेहोश हो गई। आठ-दस घंटे बाद होश में आई, तो मैं उसे देखने अस्पताल गया। मैंने कहा, होश में आ गईं, तो अच्छा हुआ। क्या खयाल है संन्यास के बाबत? उसने कहा, मुझे ठीक तो हो जाने दो। आप भी कैसे आदमी हो! यह भी नहीं पूछा कि चोट कहां लगी! एकदम पूछते हैं, संन्यास! मैंने कहा, क्या पता, जब तक मैं पूछूं, तुम चली जाओ। क्योंकि कल तो कोई पक्का न था इस एक्सिडेंट का। यह हो गया न आज! जन्मदिन अब उतना पक्का है, जितना कल था? उसने कहा, संदिग्ध मालूम होता है! फिर मैंने कहा, कितनी देर करनी है? उसने कहा कि कम से कम चौबीस घंटे। मैं जरा ठीक हो जाऊं, तो फिर आपसे कहूं। मैंने कहा, जैसी तेरी मर्जी। पर मैंने कहा कि एक काम करना, चौबीस घंटे सोचती रहना कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना है।
वह तो मर गई छः घंटे बाद। चौबीस घंटे पूरे नहीं हुए। उसकी बहू मेरे पास दौड़ी आई कि अब क्या होगा! वह तो मर गई! तो मैंने कहा कि मैं उसे मरी हुई हालत में संन्यास देता हूं। उसने कहा, यह कैसा संन्यास है? मैंने कहा कि उसके मन में अगर जरा भी भाव रह गया होगा, जरा भी भाव मरते क्षण में कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना है–तो भाव ही तो सब कुछ है। तो बीज तो निर्मित हो गया। उसकी आगे की यात्रा पर उसके फल कभी भी आ सकते हैं।
कृष्ण कहते हैं, सदकर्म की, शुभ कर्म की दिशा में किया गया विचार भी, शुभ कर्म की दिशा में उठाया गया एक कदम भी; शुभ कर्म की दिशा, चाहे पूरी हो पाए या न हो पाए, तो भी कभी दुर्गति, कभी बुरी गति नहीं होती है।
गीता दर्शन
ओशो
लेकिन दूसरे दिन सुबह ही, मेरी सभा में ही आते हुए, सभा-भवन के सामने ही कार से टकराकर बेहोश हो गई। आठ-दस घंटे बाद होश में आई, तो मैं उसे देखने अस्पताल गया। मैंने कहा, होश में आ गईं, तो अच्छा हुआ। क्या खयाल है संन्यास के बाबत? उसने कहा, मुझे ठीक तो हो जाने दो। आप भी कैसे आदमी हो! यह भी नहीं पूछा कि चोट कहां लगी! एकदम पूछते हैं, संन्यास! मैंने कहा, क्या पता, जब तक मैं पूछूं, तुम चली जाओ। क्योंकि कल तो कोई पक्का न था इस एक्सिडेंट का। यह हो गया न आज! जन्मदिन अब उतना पक्का है, जितना कल था? उसने कहा, संदिग्ध मालूम होता है! फिर मैंने कहा, कितनी देर करनी है? उसने कहा कि कम से कम चौबीस घंटे। मैं जरा ठीक हो जाऊं, तो फिर आपसे कहूं। मैंने कहा, जैसी तेरी मर्जी। पर मैंने कहा कि एक काम करना, चौबीस घंटे सोचती रहना कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना है।
वह तो मर गई छः घंटे बाद। चौबीस घंटे पूरे नहीं हुए। उसकी बहू मेरे पास दौड़ी आई कि अब क्या होगा! वह तो मर गई! तो मैंने कहा कि मैं उसे मरी हुई हालत में संन्यास देता हूं। उसने कहा, यह कैसा संन्यास है? मैंने कहा कि उसके मन में अगर जरा भी भाव रह गया होगा, जरा भी भाव मरते क्षण में कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना है–तो भाव ही तो सब कुछ है। तो बीज तो निर्मित हो गया। उसकी आगे की यात्रा पर उसके फल कभी भी आ सकते हैं।
कृष्ण कहते हैं, सदकर्म की, शुभ कर्म की दिशा में किया गया विचार भी, शुभ कर्म की दिशा में उठाया गया एक कदम भी; शुभ कर्म की दिशा, चाहे पूरी हो पाए या न हो पाए, तो भी कभी दुर्गति, कभी बुरी गति नहीं होती है।
गीता दर्शन
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