पूछा है आर. एस. गिल ने। सिक्ख ही पूछ सकता है ऐसा प्रश्न। क्योंकि
प्रश्न हृदय से नहीं आया। प्रश्न थोथा है, और बुद्धि से आया। प्रश्न परंपरा
से आया। मान्यता से आया। पक्षपात से आया। पर समझने-जैसा है, क्योंकि ऐसे
पक्षपात सभी के भीतर भरे पड़े हैं।
पहली बात, पहले ही प्रश्न की पंक्ति में पूछनेवाला कह रहा है–नानकदेव! देव का क्या अर्थ होता है? देव का अर्थ होता है दिव्य, डिवाइन। दिव्यता का अर्थ होता है भगवत्ता। नानकदेव कहने में ही साफ हो गया कि मनुष्य के पार, मनुष्य से ऊपर; दिव्यता को स्वीकार कर लिया है। भगवान का क्या अर्थ होता है? बड़ा सीधा-सा अर्थ होता है–भाग्यवान। कुछ और बड़ा अर्थ नहीं। कौन है भाग्यवान? जिसने अपने भीतर की दिव्यता को पहचान लिया। कौन है भाग्यवान? जिसकी कली खिल गयी, जो फूल हो गया। कौन है भाग्यवान? जिसे पाने को कुछ न रहा–जो पाने योग्य था, पा लिया। जब पूरा फूल खिल जाता है, तो भगवान है। जब गंगा सागर में गिरती है, तो भगवान है। जहां भी पूर्ण की झलक आती है, वहीं भगवान है।
भगवान शब्द का अर्थ ठीक से समझने की कोशिश करो। नानक ने न कहा हो, मैं कहता हूं कि नानक भगवान थे। और नानक ने अगर न कहा होगा, तो उन लोगों के कारण न कहा होगा जिनके बीच नानक बोल रहे थे। उनकी बुद्धि इस योग्य न रही होगी कि वे समझ पाते। कृष्ण तो नहीं डरे। कृष्ण ने तो अर्जुन से कहा–सर्व धर्मान परित्यज्य…, छोड़-छाड़ सब, आ मेरी शरण, मैं परात्पर ब्रह्म तेरे सामने मौजूद हूं। कृष्ण कह सके अर्जुन से, क्योंकि भरोसा था अर्जुन समझ सकेगा। नानक को पंजाबियों से इतना भरोसा न रहा होगा कि वे समझ पायेंगे। इसलिए नहीं कहा होगा। और इसलिए भी नहीं कहा कि नानक उस विराट परंपरा से थोड़ा हटकर चल रहे थे जिस विराट परंपरा में कृष्ण हैं, राम हैं, उससे थोड़ा हटकर चल रहे थे।
नानक एक नया प्रयोग कर रहे थे कि हिंदू और मुसलमान के बीच किसी तरह सेतु बन जाए। एक समझौता हो जाए। एक समन्वय बन जाए। मुसलमान सख्त खिलाफ हैं किसी आदमी को भगवान कहने के। अगर नानक सीधे-सीधे हिंदू-परंपरा में जीते तो निश्चित उन्होंने घोषणा की होती कि मैं भगवान हूं। लेकिन सेतु बनाने की चेष्टा थी। जरूरी भी थी। उस समय की मांग थी। मुसलमान को भी राजी करना था। मुसलमान यह भाषा समझ ही नहीं सकता कि मैं भगवान हूं। जिसने ऐसा कहा उसने मुसलमान से दुश्मनी मोल ले ली। नानक हाथ बढ़ा रहे थे मित्रता का, इसलिए नानक को ऐसी भाषा बोलनी उचित थी जो मुसलमान भी समझेगा। नहीं तो जो मंसूर के साथ किया, वही उन्होंने नानक के साथ किया होता। या उन्होंने कहा होता, नानक भी हिंदू हैं, यह सब बकवास है। हिंदू और मुसलमान के एक होने की।
जिसको समन्वय साधना हो, वह बहुत सोचकर बोलता है। नानक बहुत सोचकर बोले। उन्होंने कृष्ण जैसी घोषणा नहीं की। उनकी जो घोषणा है, वह मुहम्मद जैसी है। उसमें मुसलमान को फुसलाने का आग्रह है। पंजाब है सीमा-प्रांत, वहां हिंदू और मुसलमान का संघर्ष हुआ। वहां हिंदू और मुसलमान के बीच विरोध हुआ। वहीं मिलन भी होना चाहिए। वहीं हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़े हुए, वहीं मैत्री का बीज भी बोया जाना चाहिए। सीमांत-प्रांत यदि समन्वय के प्रांत न हों, तो युद्ध के प्रांत हो जाते हैं। तो नानक ने बड़ी गहरी चेष्टा की।
इसलिए सिक्ख-धर्म बिलकुल हिंदू-धर्म नहीं है। न मुसलमान-धर्म है। सिक्ख दोनों के बीच है। कुछ हिंदू है, कुछ मुसलमान। दोनों है। दोनों में जो सारभूत है, उसका जोड़ है। इसलिए सिक्ख-धर्म की पृथक सत्ता है।
लेकिन इसे हमें समझना होगा इतिहास के संदर्भ में, नानक क्यों न कह सके जैसा कृष्ण कह सके। बुद्ध कह सके, महावीर कह सके, नानक क्यों न कह सके। नानक के सामने एक नयी परिस्थिति थी, जो न बुद्ध के सामने थी, न महावीर के, न कृष्ण के। न तो बुद्ध को, न महावीर को, न कृष्ण को, किसी को भी मुसलमान के साथ सामना न था। यह नयी परिस्थिति, और नयी भाषा खोजनी जरूरी थी। और जीवंत पुरुष सदा ही परिस्थिति के अनुकूल, परिस्थिति के लिए उत्तर खोजते हैं। यही तो उनकी जीवंतता है। उन्होंने ठीक उत्तर खोजा। लेकिन पूछनेवाले को सोचना चाहिए नानक देव क्यों?
इस देश में जो पले, वे चाहे हिंदू हों, चाहे जैन हों, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध हों, इस देश की हवा में, इस देश के प्राणों में एक संगीत है, जिससे बचकर जाना मुश्किल है। यहां तो मुसलमान भी जो बड़ा हुआ है, वह भी ठीक उसी अर्थ में मुसलमान नहीं रह जाता जिस अर्थ में भारत के बाहर का मुसलमान मुसलमान होता है। यहां के मुसलमान में भी हिंदू की धुन समा जाती है। महावीर ने कहा, कोई भगवान नहीं, कोई संसार को बनानेवाला नहीं, लेकिन महावीर को माननेवालों ने महावीर को भगवान कहा। बुद्ध ने कहा, सब मूर्तियां तोड़ डालो, सब मूर्तियां हटा दो, किसी की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्ध के माननेवालों ने बुद्ध की पूजा की। इस मुल्क में भगवत्ता की तरफ ऐसा सहज भाव है कि जिन्होंने इनकार किया, उनको भी भगवान मान लिया गया। यह इस मुल्क की आंतरिक दशा है। तो जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, वह भी कहते हैं–नानकदेव! नानक कहने से काम चल जाता। देव क्यों जोड़ दिया? “भगवान’ शब्द का उपयोग न किया, “देव’ शब्द को उपयोग किया। लेकिन बात तो वही हो गयी। घोषणा तो हो गयी कि नानक आदमी पर समाप्त नहीं हैं, आदमी से ज्यादा हैं।
और ठीक ही है, वह आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी तो हैं ही, लेकिन धन, आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी होना तो जैसे उनका प्रारंभ है, अंत नहीं। वहां से शुरुआत है, वहां समाप्ति नहीं।
“नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे।’ निश्चित ही। इसमें कोई दो मत नहीं है। लेकिन जागते और सोते में कुछ फर्क करोगे? प्रकृति और परमात्मा में फर्क क्या है? जागने और सोने का। प्रकृति है सोया हुआ परमात्मा। परमात्मा है जागी हुई प्रकृति। फर्क क्या है? बुद्ध में और तुममें फर्क क्या है? बुद्ध जागे हुए, तुम सोये हुए। तुम सोये हुए बुद्ध हो। आंख खोल ली कि तुम ही हो गये। आंख की ओट में ही फर्क है, बस। आंख खोली कि प्रकाश ही प्रकाश है। आंख बंद की कि अंधेरा ही अंधेरा है।
जिन सूत्र
ओशो
पहली बात, पहले ही प्रश्न की पंक्ति में पूछनेवाला कह रहा है–नानकदेव! देव का क्या अर्थ होता है? देव का अर्थ होता है दिव्य, डिवाइन। दिव्यता का अर्थ होता है भगवत्ता। नानकदेव कहने में ही साफ हो गया कि मनुष्य के पार, मनुष्य से ऊपर; दिव्यता को स्वीकार कर लिया है। भगवान का क्या अर्थ होता है? बड़ा सीधा-सा अर्थ होता है–भाग्यवान। कुछ और बड़ा अर्थ नहीं। कौन है भाग्यवान? जिसने अपने भीतर की दिव्यता को पहचान लिया। कौन है भाग्यवान? जिसकी कली खिल गयी, जो फूल हो गया। कौन है भाग्यवान? जिसे पाने को कुछ न रहा–जो पाने योग्य था, पा लिया। जब पूरा फूल खिल जाता है, तो भगवान है। जब गंगा सागर में गिरती है, तो भगवान है। जहां भी पूर्ण की झलक आती है, वहीं भगवान है।
भगवान शब्द का अर्थ ठीक से समझने की कोशिश करो। नानक ने न कहा हो, मैं कहता हूं कि नानक भगवान थे। और नानक ने अगर न कहा होगा, तो उन लोगों के कारण न कहा होगा जिनके बीच नानक बोल रहे थे। उनकी बुद्धि इस योग्य न रही होगी कि वे समझ पाते। कृष्ण तो नहीं डरे। कृष्ण ने तो अर्जुन से कहा–सर्व धर्मान परित्यज्य…, छोड़-छाड़ सब, आ मेरी शरण, मैं परात्पर ब्रह्म तेरे सामने मौजूद हूं। कृष्ण कह सके अर्जुन से, क्योंकि भरोसा था अर्जुन समझ सकेगा। नानक को पंजाबियों से इतना भरोसा न रहा होगा कि वे समझ पायेंगे। इसलिए नहीं कहा होगा। और इसलिए भी नहीं कहा कि नानक उस विराट परंपरा से थोड़ा हटकर चल रहे थे जिस विराट परंपरा में कृष्ण हैं, राम हैं, उससे थोड़ा हटकर चल रहे थे।
नानक एक नया प्रयोग कर रहे थे कि हिंदू और मुसलमान के बीच किसी तरह सेतु बन जाए। एक समझौता हो जाए। एक समन्वय बन जाए। मुसलमान सख्त खिलाफ हैं किसी आदमी को भगवान कहने के। अगर नानक सीधे-सीधे हिंदू-परंपरा में जीते तो निश्चित उन्होंने घोषणा की होती कि मैं भगवान हूं। लेकिन सेतु बनाने की चेष्टा थी। जरूरी भी थी। उस समय की मांग थी। मुसलमान को भी राजी करना था। मुसलमान यह भाषा समझ ही नहीं सकता कि मैं भगवान हूं। जिसने ऐसा कहा उसने मुसलमान से दुश्मनी मोल ले ली। नानक हाथ बढ़ा रहे थे मित्रता का, इसलिए नानक को ऐसी भाषा बोलनी उचित थी जो मुसलमान भी समझेगा। नहीं तो जो मंसूर के साथ किया, वही उन्होंने नानक के साथ किया होता। या उन्होंने कहा होता, नानक भी हिंदू हैं, यह सब बकवास है। हिंदू और मुसलमान के एक होने की।
जिसको समन्वय साधना हो, वह बहुत सोचकर बोलता है। नानक बहुत सोचकर बोले। उन्होंने कृष्ण जैसी घोषणा नहीं की। उनकी जो घोषणा है, वह मुहम्मद जैसी है। उसमें मुसलमान को फुसलाने का आग्रह है। पंजाब है सीमा-प्रांत, वहां हिंदू और मुसलमान का संघर्ष हुआ। वहां हिंदू और मुसलमान के बीच विरोध हुआ। वहीं मिलन भी होना चाहिए। वहीं हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़े हुए, वहीं मैत्री का बीज भी बोया जाना चाहिए। सीमांत-प्रांत यदि समन्वय के प्रांत न हों, तो युद्ध के प्रांत हो जाते हैं। तो नानक ने बड़ी गहरी चेष्टा की।
इसलिए सिक्ख-धर्म बिलकुल हिंदू-धर्म नहीं है। न मुसलमान-धर्म है। सिक्ख दोनों के बीच है। कुछ हिंदू है, कुछ मुसलमान। दोनों है। दोनों में जो सारभूत है, उसका जोड़ है। इसलिए सिक्ख-धर्म की पृथक सत्ता है।
लेकिन इसे हमें समझना होगा इतिहास के संदर्भ में, नानक क्यों न कह सके जैसा कृष्ण कह सके। बुद्ध कह सके, महावीर कह सके, नानक क्यों न कह सके। नानक के सामने एक नयी परिस्थिति थी, जो न बुद्ध के सामने थी, न महावीर के, न कृष्ण के। न तो बुद्ध को, न महावीर को, न कृष्ण को, किसी को भी मुसलमान के साथ सामना न था। यह नयी परिस्थिति, और नयी भाषा खोजनी जरूरी थी। और जीवंत पुरुष सदा ही परिस्थिति के अनुकूल, परिस्थिति के लिए उत्तर खोजते हैं। यही तो उनकी जीवंतता है। उन्होंने ठीक उत्तर खोजा। लेकिन पूछनेवाले को सोचना चाहिए नानक देव क्यों?
इस देश में जो पले, वे चाहे हिंदू हों, चाहे जैन हों, चाहे सिक्ख हों, चाहे बौद्ध हों, इस देश की हवा में, इस देश के प्राणों में एक संगीत है, जिससे बचकर जाना मुश्किल है। यहां तो मुसलमान भी जो बड़ा हुआ है, वह भी ठीक उसी अर्थ में मुसलमान नहीं रह जाता जिस अर्थ में भारत के बाहर का मुसलमान मुसलमान होता है। यहां के मुसलमान में भी हिंदू की धुन समा जाती है। महावीर ने कहा, कोई भगवान नहीं, कोई संसार को बनानेवाला नहीं, लेकिन महावीर को माननेवालों ने महावीर को भगवान कहा। बुद्ध ने कहा, सब मूर्तियां तोड़ डालो, सब मूर्तियां हटा दो, किसी की पूजा की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन बुद्ध के माननेवालों ने बुद्ध की पूजा की। इस मुल्क में भगवत्ता की तरफ ऐसा सहज भाव है कि जिन्होंने इनकार किया, उनको भी भगवान मान लिया गया। यह इस मुल्क की आंतरिक दशा है। तो जिन मित्र ने प्रश्न पूछा है, वह भी कहते हैं–नानकदेव! नानक कहने से काम चल जाता। देव क्यों जोड़ दिया? “भगवान’ शब्द का उपयोग न किया, “देव’ शब्द को उपयोग किया। लेकिन बात तो वही हो गयी। घोषणा तो हो गयी कि नानक आदमी पर समाप्त नहीं हैं, आदमी से ज्यादा हैं।
और ठीक ही है, वह आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी तो हैं ही, लेकिन धन, आदमी से बहुत ज्यादा हैं। आदमी होना तो जैसे उनका प्रारंभ है, अंत नहीं। वहां से शुरुआत है, वहां समाप्ति नहीं।
“नानकदेव भी जाग्रतपुरुष थे।’ निश्चित ही। इसमें कोई दो मत नहीं है। लेकिन जागते और सोते में कुछ फर्क करोगे? प्रकृति और परमात्मा में फर्क क्या है? जागने और सोने का। प्रकृति है सोया हुआ परमात्मा। परमात्मा है जागी हुई प्रकृति। फर्क क्या है? बुद्ध में और तुममें फर्क क्या है? बुद्ध जागे हुए, तुम सोये हुए। तुम सोये हुए बुद्ध हो। आंख खोल ली कि तुम ही हो गये। आंख की ओट में ही फर्क है, बस। आंख खोली कि प्रकाश ही प्रकाश है। आंख बंद की कि अंधेरा ही अंधेरा है।
जिन सूत्र
ओशो
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