बच्चों से मां बाप कह रहे हैं कि यह तुम्हारी मां है, इसको प्रेम करो।
यह भी कोई कहने की बात है! कि यह तुम्हारे पिता हैं, इनको प्रेम करो! इसका
मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि मां का और बेटे का संबंध प्रेमपूर्ण नहीं
है, इसलिए प्रेम करवाना पड़ रहा है। मां कहती है, मैं तुम्हारी मां हूं मुझे
प्रेम करो। यह भी कोई कहने की बात है! मां होनी चाहिए, प्रेम फलित होना
चाहिए। लेकिन वह नहीं फलित हो रहा है। और भूल अगर कहीं होगी, तो मां की ही
हो सकती है, बच्चे की क्या भूल हो सकती है? बच्चा तो अभी कुछ भी नहीं जानता
है।
लेकिन जिस मां को बेटे से यह कहना पड़ता है, मैं तुम्हारी मां हूं मुझे प्रेम करो, वह जननी होगी, मां नहीं है। उसने पैदा किया होगा। लेकिन मातृत्व कुछ और बात है, सभी स्त्रियों को उपलब्ध नहीं होता। जननी तो कोई भी स्त्री बन सकती है, लेकिन मां बनना बड़ा कठिन है। क्योंकि मां तो एक बड़ी लंबी प्रेम की प्रक्रिया है। तो वह बेटे को कह रही है कि मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं। बेटा धीरे धीरे प्रेम दिखाने लगेगा। क्योंकि क्या करेगा? इस मां से दूध लेना है, इस मां से पैसे लेना है, इस मां के ऊपर सब कुछ निर्भर है। बेटा बिलकुल असहाय है। यह मां ही उसकी जीवन सुविधा है, सहारा है, सुरक्षा है। तो सौदा हो जाएगा, बेटा प्रेम प्रकट करने लगेगा। मां को देख कर हंसने लगेगा, चाहे हंसी उसे न आ रही हो। मां को देख कर कहने लगेगा कि मेरी जैसी सुंदर मां और कहीं भी नहीं है। और मां इससे प्रफुल्लित होगी। और बेटा धोखा सीख रहा है, और बेटा झूठ सीख रहा है, और प्रेम जैसी परम घटना असत्य हुई जा रही है। फिर यह बेटा बड़ा तो मां के पास होगा, और झूठा प्रेम गहरा हो जाएगा, वह उसका व्यक्तित्व बन जाएगा।
फिर जब यह किसी स्त्री के प्रेम में भी पड़ेगा, तो वह प्रेम आंतरिक नहीं हो पाएगा। यह झूठ ही बोलता रहेगा। यह उस स्त्री से भी कहेगा कि तुझसे ज्यादा सुंदर स्त्री कोई भी नहीं है। यह स्त्री से भी प्रेम करने की कोशिश करेगा। यह प्रेम प्रकट करेगा। यह दिन में दस दफे कहेगा कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। मगर यह सब झूठ हुआ जा रहा है।
इसे आप कभी सोचना। जब आप अपनी पत्नी को कहते हैं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं तो भीतर कुछ भी होता है प्रेम जैसा जब आप कहते हैं? अक्सर तो डर के कारण कहते हैं। अक्सर तो इसलिए कहते हैं कि कहते रहना बार बार ठीक रहता है, याददाश्त बनी रहती है। पत्नी को भी भरोसा रहता है, आपको भी भरोसा रहता है। पत्नी भी इसी तरह दोहरा रही है, वह भी झूठ है।
आपके व्यक्तित्व बातें कर रहे हैं, आपकी अंतर-आत्माएं नहीं मिल रही हैं।
तब इस झूठ से कोई आनंद पैदा नहीं होता है। और तब इस झूठ से कोई भी संतोष नहीं मिलता। झूठ से मिल भी नहीं सकता। झूठे बीज से कहीं अंकुर पैदा हुए हैं? झूठे कंठ से कहीं गीत पैदा हुए हैं? झूठी आँख से कहीं कोई दृश्य दिखाई पड़े हैं? झूठ का अर्थ ही है कि जो नहीं है। उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। झूठ का अर्थ ही है कि जो दिखाई पड़ता है और है नहीं! उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। जीवन तब एक रिक्तता बन जाएगी। इस व्यक्तित्व को पहचानें! आपके भीतर जो-जो झूठ है, उसे पहचानें।
मैं आपसे यह नहीं कहता कि झूठ इसलिए मत बोलें कि दूसरे को नुकसान पहुंचता है, वह तो पहुंचता ही है। झूठ से लेकिन पहले आपको नुकसान पहुंच रहा है। आप झूठे हुए जा रहे हैं, मिथ्या हुए जा रहे हैं। हुए जा रहे हैं कहना ठीक नहीं है, आप बिलकुल हो चुके हैं। आप निष्णात हो गए हैं! आप इतने कुशल हो गए हैं कि आपको याद ही नहीं आता कि आप क्या कर रहे हैं!
मैं झूठ बोलने वाले लोगों को जानता हूं। मैं उनको दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि वे झूठ जान कर नहीं बोल रहे हैं अब। अब उनसे झूठ बोला जा रहा है। और कभी कभी वे ऐसे झूठ बोलते हैं कि जिससे न तो कोई लाभ है, न कोई उनका हित है। और जान कर भी नहीं बोल रहे हैं। झूठ ऐसा पक्का हो गया है कि उनसे बोला जाता है। जैसे ही वे बोलते हैं, कुछ भी वे सोचते हैं, उनके झूठ के ढांचे में पड़ कर वह झूठ हो जाता है। वे सच भी बोलें तो थोड़ा झूठ बिना मिलाए नहीं बोल सकते!
अपने इस ढांचे को पहचानें। इसके प्रति सजग हों। और इसको उतार कर रखने की कोशिश करें।
साधना सूत्र
ओशो
लेकिन जिस मां को बेटे से यह कहना पड़ता है, मैं तुम्हारी मां हूं मुझे प्रेम करो, वह जननी होगी, मां नहीं है। उसने पैदा किया होगा। लेकिन मातृत्व कुछ और बात है, सभी स्त्रियों को उपलब्ध नहीं होता। जननी तो कोई भी स्त्री बन सकती है, लेकिन मां बनना बड़ा कठिन है। क्योंकि मां तो एक बड़ी लंबी प्रेम की प्रक्रिया है। तो वह बेटे को कह रही है कि मुझे प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं। बेटा धीरे धीरे प्रेम दिखाने लगेगा। क्योंकि क्या करेगा? इस मां से दूध लेना है, इस मां से पैसे लेना है, इस मां के ऊपर सब कुछ निर्भर है। बेटा बिलकुल असहाय है। यह मां ही उसकी जीवन सुविधा है, सहारा है, सुरक्षा है। तो सौदा हो जाएगा, बेटा प्रेम प्रकट करने लगेगा। मां को देख कर हंसने लगेगा, चाहे हंसी उसे न आ रही हो। मां को देख कर कहने लगेगा कि मेरी जैसी सुंदर मां और कहीं भी नहीं है। और मां इससे प्रफुल्लित होगी। और बेटा धोखा सीख रहा है, और बेटा झूठ सीख रहा है, और प्रेम जैसी परम घटना असत्य हुई जा रही है। फिर यह बेटा बड़ा तो मां के पास होगा, और झूठा प्रेम गहरा हो जाएगा, वह उसका व्यक्तित्व बन जाएगा।
फिर जब यह किसी स्त्री के प्रेम में भी पड़ेगा, तो वह प्रेम आंतरिक नहीं हो पाएगा। यह झूठ ही बोलता रहेगा। यह उस स्त्री से भी कहेगा कि तुझसे ज्यादा सुंदर स्त्री कोई भी नहीं है। यह स्त्री से भी प्रेम करने की कोशिश करेगा। यह प्रेम प्रकट करेगा। यह दिन में दस दफे कहेगा कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। मगर यह सब झूठ हुआ जा रहा है।
इसे आप कभी सोचना। जब आप अपनी पत्नी को कहते हैं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं तो भीतर कुछ भी होता है प्रेम जैसा जब आप कहते हैं? अक्सर तो डर के कारण कहते हैं। अक्सर तो इसलिए कहते हैं कि कहते रहना बार बार ठीक रहता है, याददाश्त बनी रहती है। पत्नी को भी भरोसा रहता है, आपको भी भरोसा रहता है। पत्नी भी इसी तरह दोहरा रही है, वह भी झूठ है।
आपके व्यक्तित्व बातें कर रहे हैं, आपकी अंतर-आत्माएं नहीं मिल रही हैं।
तब इस झूठ से कोई आनंद पैदा नहीं होता है। और तब इस झूठ से कोई भी संतोष नहीं मिलता। झूठ से मिल भी नहीं सकता। झूठे बीज से कहीं अंकुर पैदा हुए हैं? झूठे कंठ से कहीं गीत पैदा हुए हैं? झूठी आँख से कहीं कोई दृश्य दिखाई पड़े हैं? झूठ का अर्थ ही है कि जो नहीं है। उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। झूठ का अर्थ ही है कि जो दिखाई पड़ता है और है नहीं! उससे कुछ भी पैदा नहीं होगा। जीवन तब एक रिक्तता बन जाएगी। इस व्यक्तित्व को पहचानें! आपके भीतर जो-जो झूठ है, उसे पहचानें।
मैं आपसे यह नहीं कहता कि झूठ इसलिए मत बोलें कि दूसरे को नुकसान पहुंचता है, वह तो पहुंचता ही है। झूठ से लेकिन पहले आपको नुकसान पहुंच रहा है। आप झूठे हुए जा रहे हैं, मिथ्या हुए जा रहे हैं। हुए जा रहे हैं कहना ठीक नहीं है, आप बिलकुल हो चुके हैं। आप निष्णात हो गए हैं! आप इतने कुशल हो गए हैं कि आपको याद ही नहीं आता कि आप क्या कर रहे हैं!
मैं झूठ बोलने वाले लोगों को जानता हूं। मैं उनको दोषी नहीं ठहराता, क्योंकि वे झूठ जान कर नहीं बोल रहे हैं अब। अब उनसे झूठ बोला जा रहा है। और कभी कभी वे ऐसे झूठ बोलते हैं कि जिससे न तो कोई लाभ है, न कोई उनका हित है। और जान कर भी नहीं बोल रहे हैं। झूठ ऐसा पक्का हो गया है कि उनसे बोला जाता है। जैसे ही वे बोलते हैं, कुछ भी वे सोचते हैं, उनके झूठ के ढांचे में पड़ कर वह झूठ हो जाता है। वे सच भी बोलें तो थोड़ा झूठ बिना मिलाए नहीं बोल सकते!
अपने इस ढांचे को पहचानें। इसके प्रति सजग हों। और इसको उतार कर रखने की कोशिश करें।
साधना सूत्र
ओशो
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