एक बौद्ध भिक्षु हुआ–आर्य असंग। बड़ा बहुमूल्य भिक्षु हुआ। उसके जीवन में
बड़ी अनूठी कथा है। नालंदा में आचार्य था। फिर समझ आयी संसार की व्यर्थता
की तो सब छोड़कर चला गया। तय कर लिया कि अब तो ध्यान में ही डूबूंगा, हो गया
ज्ञान बहुत। जान लिया सब, और जाना तो कुछ भी नहीं। पढ़ डाले शास्त्र सब,
हाथ तो कुछ भी न आया। छोड़कर पहाड़ चला गया। एक गुफा में बैठ गया। तीन साल
अथक ध्यान किया। लेकिन कहीं मंजिल करीब आती मालूम न पड़ी।
हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से पत्ते तोड़त्तोड़कर लाती है, पत्ते गिर-गिर जाते हैं, घोंसला बनता नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था? घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। कुछ न हुआ। सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहुत हो गया!
फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन रही है। गिर-गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, फिर-फिर बुनती है। फिर उसे खयाल आया कि आश्चर्य की बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं? एक बार और कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ। अब उसने सोचा, अब बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो बाहर–मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, सारा जीवन गंवा दिया!
वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें कीड़े पड़ गये हैं–वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा। अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व खिला। उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था–नौ वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न मिली, अब! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी अहंकार-पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजूद न रहा। करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता। प्रेम हो, तो अहंकार समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था–नौ महीने से भी और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी । मैं तो भीतर था ही, मैं तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी–मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार की उदघोषणा थी।
भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है–अहंकार–वह भी तोड़ना है। स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता। यह जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते हैं–“मेरा’, “मैं’, यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है।
अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। किसी स्कूल में “गोल्ड मेडल’ मिल गया था, वह जुड़ गया। किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ ली। कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं “पद्मश्री’ मिल गयी, कहीं “भारतरत्न’ हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं।
तुम जरा कभी सोचना कि “मैं कौन हूं’, तो जो भी उत्तर आयें तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं। कोई तुम्हारी मां ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है। यह कभी भी गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, कोई प्राण नहीं है।
ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना। और भीतर जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला है अहंकार का।
“जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया, उसके चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।’
जिन सूत्र
ओशो
हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से पत्ते तोड़त्तोड़कर लाती है, पत्ते गिर-गिर जाते हैं, घोंसला बनता नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था? घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। कुछ न हुआ। सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहुत हो गया!
फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन रही है। गिर-गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, फिर-फिर बुनती है। फिर उसे खयाल आया कि आश्चर्य की बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं? एक बार और कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ। अब उसने सोचा, अब बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो बाहर–मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, सारा जीवन गंवा दिया!
वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें कीड़े पड़ गये हैं–वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा। अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व खिला। उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था–नौ वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न मिली, अब! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी अहंकार-पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजूद न रहा। करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता। प्रेम हो, तो अहंकार समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था–नौ महीने से भी और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी । मैं तो भीतर था ही, मैं तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी–मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार की उदघोषणा थी।
भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है–अहंकार–वह भी तोड़ना है। स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता। यह जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते हैं–“मेरा’, “मैं’, यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है।
अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। किसी स्कूल में “गोल्ड मेडल’ मिल गया था, वह जुड़ गया। किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ ली। कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं “पद्मश्री’ मिल गयी, कहीं “भारतरत्न’ हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं।
तुम जरा कभी सोचना कि “मैं कौन हूं’, तो जो भी उत्तर आयें तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं। कोई तुम्हारी मां ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है। यह कभी भी गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, कोई प्राण नहीं है।
ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना। और भीतर जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला है अहंकार का।
“जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया, उसके चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।’
जिन सूत्र
ओशो
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