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Sunday, August 16, 2015

सुना है, सूफी फकीर स्त्री हुई राबिया...

....  वह एक सांझ अपने घर के सामने कुछ खोज रही थी, दो-चार लोग आते थे, उन्होंने पूछा, क्या खो गया? उसने कहा मेरी सुई गिर गयी। तो वे दो-चार भी उसको साथ देने लगे–बूढ़ी औरत है, आंखें भी कमजोर हैं! लेकिन फिर उनमें से किसी एक को होश आया कि सुई बड़ी छोटी चीज है, जब तक ठीक से पता न चले कहां गिरी, तो इतने बड़े रास्ते पर कहां खोजते रहेंगे? तो उसने पूछा कि मां, यह बता दे कि सुई गिरी कहां है? तो वहीं आसपास हम खोज लें, इतने बड़े रास्ते पर! उसने कहा बेटा! यह तो पूछो ही मत, सुई तो घर के भीतर गिरी है। वे चारों हाथ छोड़कर खड़े हो गये, उन्होंने कहा तू पागल हुई है! सुई घर के भीतर गिरी है, खुद भी पागल बनी, हमको भी पागल बनाया। जब सुई घर के भीतर गुमी है, तो भीतर ही खोज। उसने कहा, वह तो मुझे भी पता है। लेकिन भीतर अंधेरा है, बाहर रोशनी है–सूरज अभी ढला नहीं–अंधेरे में खोजूं भी कैसे? खोज तो रोशनी में ही हो सकती है।

वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कि मालूम होता है बुढ़ापे में तेरा सिर फिर गया है! सठिया गयी तू! अगर घर में रोशनी नहीं है, तो भी खोजना तो घर में ही पड़ेगा। तो रोशनी भीतर ले जा। दीया मांग ला उधार पड़ोसी से, अगर तेरे घर में दीया नहीं।

अब हंसने की बारी उस बुढ़िया की थी। वह बड़ी महत्वपूर्ण सूफी फकीर औरत हुई। वह हंसने लगी। उसने कहा कि मैं तो सोचती थी कि तुम इतने समझदार नहीं हो जितनी समझदारी की बात कर रहे हो। मैं तो उसी तर्क का अनुसरण कर रही थी, जिसका तुम सब कर रहे हो। तुम सब भी बाहर खोज रहे हो, बिना बूझे कि खोया कहां? भीतर खोया है, खोज बाहर रहे हो। और कारण जो मैंने बताया, वही तुम्हारा है। क्योंकि आंखों की रोशनी बाहर पड़ती है, आंखें बाहर देखती हैं, बाहर सब साफ-सुथरा है, भीतर बड़ा गहन अंधकार है।

भीतर तुमने कभी आंख बंद करके देखा? कबीर को पढ़ो, दादू को पढ़ो, नानक को पढ़ो, तो वे कहते हैं, हजार-हजार सूरजों जैसा प्रकाश! तुम भीतर आंख बंद करते हो, सिर्फ अंधेरा। कुछ सूरज का प्रकाश वगैरह नहीं दिखायी पड़ता। सूरज तो दूर, मिट्टी का दीया भी नहीं टिमटिमाता। झट आंख खोलकर तुम फिर बाहर आ जाते हो। कम से कम रोशनी तो है! कम से कम रास्ते परिचित तो हैं। चीजें दिखायी तो पड़ती हैं। फिर खोज शुरू कर देते हो।

भीतर, जो आदमी बाहर का आदी हो गया है, जब पहली दफा जाएगा तो अंधेरा पायेगा। ऐसे ही जैसे तुम भरी दोपहरी में बाहर चलकर घर आते हो, एकदम अंधेरा मालूम पड़ता है। बैठ जाओ थोड़ा। थोड़ी देर में आंखें अभ्यस्त होंगी। आंख प्रतिपल बड़ी और छोटी होती रहती है। कभी धूप से आकर आईने में आंख को देखना, तो तुम पाओगे कि आंख बड़ी छोटी हो गयी है। क्योंकि इतनी धूप भीतर नहीं ले सकती, तो छोटी हो जाती है। जब अंधेरे में बैठेते हो, तो आंख बड़ी होती है। जैसे कैमरे का लेंस काम करता है, वैसे ही आंख काम करती है। थोड़ी देर बैठते हो तो घर में जहां पहले अंधेरा मालूम पड़ा था, अंधेरा समाप्त हो जाता है, रोशनी मालूम पड़ने लगती है।
अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में देखने का अभ्यास करता ही रहे, जैसा कि चोर कर लेते हैं, तो दूसरे के घर में जहां बिलकुल अंधेरा है–घर का मालिक भी जहां बिना चीजों से टकराये नहीं चल सकता–वहां भी अपरिचित चोर दूसरे के अंधेरे घर में बड़ी व्यवस्था से चल लेता है, न तो चीज गिरती है, न आवाज होती है। जिस घर में शायद कभी भी न आया हो! चोर की आंखों को अंधेरे का अभ्यास हो गया है। उसने धीरे-धीरे अंधेरे में देखने की पटुता पा ली है। उसकी आंखें अंधेरे से सामंजस्य कर ली हैं। धूप से आते हो घर, अंधेरा मालूम पड़ता है। ऐसे ही बाहर जन्मों-जन्मों से भटके हो, जब आंख बंद करते हो तो भीतर अंधेरा मालूम पड़ता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
कबीर और नानक और दादू गलत नहीं। हजार-हजार सूरज प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन थोड़ा अभ्यास!

जिन सूत्र

ओशो 

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