Osho Whatsapp Group

To Join Osho Hindi / English Message Group in Whatsapp, Please message on +917069879449 (Whatsapp) #Osho Or follow this link http...

Thursday, August 13, 2015

नीलकंठ

शिव का कंठ नीला पड़ गया है जहर के कारण। इसका एक और अर्थ भी है। वह भी हम खयाल में ले लें। शिव के कंठ में जहर जाने के बाद, शिव के कंठ के नीले पड़ जाने के बाद वे परम मौनी हो गये। वे बोलते ही नहीं। वे चुप ही हो गये। उनकी चुप्पी बहुत अदभुत है और कई आयामों में फैली हुई है।
 
पार्वती की मृत्यु हो गयी। शिव मान न पाए कि पार्वती भी मर सकती है। न मानने का कारण था। जिस पार्वती को वह जानते थे उसके मरने का कोई सवाल नहीं था। लेकिन जिस देह में पार्वती थी, वह तो मर ही गयी। तो बड़ी मीठी कथा है। ऐसी मीठी कथा कुइनया के इतिहास में दूसरी नहीं है। शिव पार्वती की लाश को कंधे पर रखकर पागल की तरह पृथ्वी पर घूमते हैं। लाश को कंधे पर रखकर घूमते हैं। ये जितने तीर्थ हैं भारत में, कथा यह है कि जहां—जहां पार्वती का एक—एक अंग गिर गया, वहां—वहां एक तीर्थ बन गया। उस लाश के टुकडे ग़रिते जाते हैं, वह लाश सड़ती जाती है, और जगह—जगह जहां—जहां एक—एक अंग गिरता जाता है वहां—वहां एक—एक तीर्थ निर्मित होता जाता है।
 
और शिव घूमते हैं। बोलते नहीं कुछ, कहते नहीं कुछ, सिर्फ रोते हैं, उनकी आंख से आसू टपकते जाते हैं। कंठ तो अवरुद्ध है। बोलने का कोई उपाय नहीं रहा। अब हृदय ही बोल सकता है। तो सिर्फ उनकी आंख से आसू टपकते हैं। और कंधे पर लाश लिये वह घूम रहे हैं। और जगह—जगह खबर हो गयी कि शिव पागल हो गये हैं। यह भी कोई बात है! ईश्वर ऐसा करें कि अपने. अपने प्रिय की लाश को लेकर ऐसा घूमें। तो बड़ी कठिनाई होगी हमें। क्योंकि ईश्वर से हमारा अर्थ यह होता है—जो बिलकुल वीतराग है। जिसमें कोई 'रण नहीं है। उसे क्या प्रयोजन है। प्रेयसी उसकी मर जाए तो मर जाए, न मरे तो न मरे। जिए तो ठीक, न जिए तो ठीक। उसे क्या प्रयोजन। यह शिव का लेकर घूमना विचित्र मालूम पड़ता है। लेकिन शिव को समझना हो तो हमें कुछ और तरह से सोचना पड़े।
 
शिव पार्वती के बीच इतना भी भेद नहीं है कि पार्वती को दूसरा कहा जा सके। तो विराग भी क्या हो और वीतरपा भी क्या हो! राग का भी कोई सवाल नहीं है। यह पार्वती और शिव के बीच ऐसा तादात्थ है, ऐसी एकता है, यह शिव खी और पुरुष का ऐसा जोड़ है कि हमको लगता है कि पार्वती का शरीर लेकर घूम रहे हैं। उनका सपना करीब—करीब वैसा ही है जैसा मेरा एक हाथ बीमार हो जाए, गल जाए और इसको लेकर मैं घूमूं। क्या करूंगा और? इसमें कोई फासला ही नहीं है। इसमें कोई फासला ही नहीं है।
 
और इसलिए तो यह कथा मीठी है कि पार्वती के अंग जहां—जहां गिरे, इस शिव के प्रेम और शिव की आत्मीयता की इतनी गहन छाया उनमें है कि उसके सड़े हुए अंगों के स्थानों पर धर्मतीर्थ निर्मित हुए। ये धर्मतीर्थ निर्मित होने का अर्थ ही केवल इतना है। इन्हें हमें प्रेमतीर्थ कहना चाहिए। इतने गहन प्रेम में और ईश्वर की स्थिति का व्यक्ति, बड़े दूर के छोर हैं। क्योंकि ईश्वर से हमारा मतलब ही यह होता है कि जो सब राग इत्यादि से बिलकुल दूर खड़े होकर बैठा है।
 
इसलिए जैन हैं, या और कोई जो वैराग्य को बहुत मूल्य देते हैं, वे सोच नहीं सकते कि शिव को ईश्वरत्व की धारणा मानना कैसे ठीक है; वे यह भी नहीं सोच पाते कि राम को कैसे ईश्वर माना जाए, जब सीता उनके बगल में खड़ी है! क्योंकि यह सीता का बगल में खड़ा होना सब गड़बड़ कर देता हैं। यह फिर जैन की समझ के बाहर हो जाएगा।
 
उसका कारण है।
 
क्योंकि उसने जो प्रतीक चुना है ईश्वर के लिए, वह परम वैराग्य का है। लेकिन वह अधूरा है। क्योंकि तब संसार और ईश्वर विपरीत हो जाते हैं। संसार हो जाता है राग और ईश्वर हो जाता है वैराग्य। शिव राग और वैरपय दोनों का संयुक्त जोड़ है। और तब एक अर्थों में जीवन के समस्त द्वैत को संपहीत कर लेते हैं।
तीसरे शब्द का प्रयोग किया है— 'त्रिलोचन'। तीन आंखवाले। दो आखें हम सबको हैं। तीसरी भी हम सब को है, उसका हमें कुछ पता नहीं है। और जब तक तीसरी भी हमारी सक्रिय न हो जाए और तीसरी आंख भी हमारी देखने न लगे, तब तक हम, तब तक हम परमात्म—सत्ता का कोई भी अनुभव नहीं कर सकते हैं। इसलिए उस तीसरी आंख का एक नाम शिवनेत्र भी है। यह भी थोड़ा समझ लें।
 
क्योंकि सब द्वैत के भीतर ही तीसरे को खोजने की तलाश है। आपकी दो आखें द्वैत की सूचक हैं। इन दोनों आखों के बीच में, ठीक संतुलित मध्य में तीसरी आंख की धारणा है। इन दोनों आखों के पार है। वह फिर दोनों आखें उस आंख के मुकाबले संतुलित हो जाती हैं। दायां—बायां दोनों खो जाता है। अंधेरा, प्रकाश दोनों खो जाता है। दो आखें समस्त द्वैत की प्रतीक हैं। ये दोनों खो जाती हैं। और फिर एक आंख ही देखनेवाली रह जाती है। उस एक आंख से जो देखा जाता है, वह अद्वैत है; और दो आंख से जो देखा जाता है, वह द्वैत है।
 
दो आंख से जो हम देखेंगे वह संसार है। और वहां विभाजन होगा। और उस एक आंख से जो हम देखेंगे वही सत्य है, और अविभाज्य है। इसलिए शिव का तीसरा नाम है—त्रिलोचन। उनकी तीसरी आंख पूर्ण सक्रिय है। और तीसरी आंख पूर्ण सक्रिय होते ही कोई भी व्यक्ति परमात्म—सत्ता से सीधा संबंधित हो जाता है।
 
'इन तीन नामों से'….,. और— और अनेक नामों से जिसे पुकारा गया है. 'जो इस समस्त चराचर का स्वामी और शांतिस्वरूप है'। यह सब विपरीत भी है। क्योंकि स्वामी किसी भी चीज का हो, शांतिस्वरूप नहीं हो सकता है। जैसे ही आप किसी चीज के स्वामी बने कि अशांति शुरू हुई। स्वामी बनना ही मत, नहीं तो अशांति शुरू होगी। क्योंकि स्वामी का मतलब यही है कि कोई दास बना लिया गया। और जो दास बन गया, वह आपसे बदला लेगा। स्वतंत्रता उसकी कुंठा में पड़ गयी। वह आपसे बदला लेगा।
 
ओशो 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts