थोड़ी सी भूल, और दरवाजा जो सामने था, युगों के लिए खो सकता है। और जितने हम करीब पहुंचते हैं, उतनी ही भूल खतरनाक होने लगती है। क्योंकि जब आप मंजिल से बहुत दूर हैं, तो भटकाव का ज्यादा डर नहीं रहता। क्योंकि आप इतने दूर हैं कि भटकेंगे भी तो क्या होगा? दूर ज्यादा और क्या होंगे इससे, जितने दूर हैं? जितने करीब पहुंचते हैं मंजिल के, उतना एक एक कदम मुश्किल का हो जाता है। क्योंकि अब एक कदम भी भटके, तो मंजिल चूक सकती है। महंगा सौदा हो गया। दायित्व बढ़ जाता है। बोध ज्यादा चाहिए। जितने निकट पहुंचते हैं, उतनी ज्यादा कठिनाई हो जाती है। लेकिन लोग बिना चले ही पहुंच जाते हैं! कोई उनको वहम दिला दे, बस वे राजी हो जाते हैं!
अमरीका में एक सज्जन हैं। उनके शिष्य का एक पत्र मेरे पास आया कि अनेक लोगों ने उनको कह दिया कि वे सिद्ध हो गए हैं, और हिंदुस्तान से भी दो तीन ज्ञानियों ने उनको लिख कर सर्टिफिकेट भेज दिया है कि वे सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, बस आपके सर्टिफिकेट की और जरूरत है। क्या पागलपन है! और जिन्होंने लिख कर भेजा है, उन तक ने सिद्ध कर दिया है कि वे भी अभी सिद्ध नहीं हैं। कोई सर्टिफिकेट का मामला है? किसी से पूछने की जरूरत है? कोई निर्णय देगा कि तुम पहुंच गए हो? और पहुंच कर भी तुम दूसरे के निर्णय की प्रतीक्षा करोगे?
लेकिन आदमी बिना कुछ किए कुछ हो जाना चाहता है! और धर्म में जितनी आसानी है बिना कुछ किए हो जाने की, उतनी और कहीं भी नहीं है। क्योंकि कहीं भी कुछ करना ही पड़ेगा, तभी कुछ हो पाएंगे। धर्म में तो ऐसा है कि आप हो ही सकते हैं, कोई अड़चन नहीं है, कोई कसौटी नहीं है, कोई बाधा नहीं डाल सकता।
ध्यान रखना इसका, कि जैसेजैसे ध्यान गहरा होगा, समाधि करीब आएगी, वैसेवैसे उत्तरदायित्व बढ़ रहा है। खतरा भी बढ़ रहा है। क्योंकि पहले तो कुछ भी भूल होती, तो कुछ खास फर्क न पड़ता था। भटके इतने थे कि अब और क्या भटकना था? दूर इतने थे कि और दूरी क्या होगी? लेकिन अब तो इंच भर की भूल, और हजारों कोस का फासला हो सकता है। अब तो जरा सा दिशा का परिवर्तन और भटकाव हो सकता है। निकट पहुंच कर बहुत लोग भटकते हैं और गिर जाते हैं। और निकट पहुंच कर अगर अहंकार की जरा सी भी रेखा रह गई, तो वह अहंकार भटका देता है। वह समाधि के पहले ही घोषणा कर देता है कि समाधि हो गई, ध्यान के पहले ही घोषणा कर देता है कि ध्यान हो गया। और जब हो ही गया तो यात्रा उसी क्षण रुक जाती है।
‘जो ज्ञान अब तुम्हें प्राप्त हुआ है, वह इसी कारण तुम्हें मिला है कि तुम्हारी आत्मा सभी शुद्ध आत्माओं से एक हो गई है और उस परमतत्व से एक हो गई है। यह ज्ञान तुम्हारे पास उस सर्वोच्च (परमात्मा) की धरोहर है। इसमें यदि तुम विश्वासघात करो, उस ज्ञान का दुरुपयोग करो, या उसकी अवहेलना करो, तो अब भी संभव है कि तुम जिस उच्च पद पर पहुंच चुके हो, उससे नीचे गिर पड़ो।’
यह मैं रोज देखता हूं कि जैसेजैसे लोग करीब पहुंचते हैं, वैसेवैसे अहंकार आखिरी बल मारता है। कल धन का अहंकार था, पद का अहंकार था, फिर वह ध्यान का अहंकार हो जाता है। कि मैं ध्यानी हो गया! जैसे ही यह अहंकार बल मारता है, वैसे ही तुम विश्वासघात कर रहे हो, वैसे ही तुम दुरुपयोग कर रहे हो, वैसे ही तुम अवहेलना कर रहे हो। और यह संभव है कि तुम वापस फेंक दिए जाओ।
‘बडे पहुंचे हुए लोग भी अपने दायित्व का भार न सम्हाल सकने के कारण और आगे न बढ़ सकने के कारण डचोढ़ी से गिर पड़ते हैं और पिछड़ जाते हैं। इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा और भय के साथ सजग रहो और युद्ध के लिए तैयार रहो।’
श्रद्धा और भय के साथ सजग इसको थोड़ा समझ लेना चाहिए। क्या अर्थ हुआ? श्रद्धा और भय को एक साथ क्यों रखा? श्रद्धा और भय तो बड़े विपरीत मालूम पड़ते हैं। क्योंकि श्रद्धावान को कैसा भय? और भयभीत को कैसी श्रद्धा? लेकिन प्रयोजन इनका महत्वपूर्ण है। और दोनों का तालमेल बिठाने की बात नहीं है, दो अलग आयाम में दोनों की उपस्थिति है।
श्रद्धा भविष्य के प्रति और भय पीछे गिर जाने के प्रति। श्रद्धा आगे बढ़ने के लिए और भय कि कहीं पीछे न गिर जाऊं। दोनों का आयाम अलग है, दोनों साथसाथ नहीं हैं। भय इस बात का सदा रखना कि मैं पीछे अभी भी गिर सकता हूं। भय रहेगा तो तुम सजग रहोगे। अभी भी गिर सकता हूं। अहंकार का स्वर जहां भी सुनाई पड़े, भयभीत हो जाना। अभी तुम पीछे खींचे जा सकते हो, अभी सेतु बिलकुल नहीं मिट गया, अभी रास्ता बना हुआ है पीछे जाने का। अभी तुम रास्ते को पकड़ सकते हो।
और श्रद्धा भविष्य के प्रति। भविष्य के प्रति पूरा भरोसा। और अतीत के प्रति भय, जरा भी भरोसा नहीं। अगर ये दो बातें तुम्हारे खयाल में रहें कि अभी और बहुत कुछ होने को है, सब नहीं हो गया है, भविष्य के प्रति यह बोध। और अतीत मिट गया है, लेकिन बिलकुल नहीं मिट गया है, अभी लौटना संभव हो सकता है। रास्ते कायम हैं। और जरा सी भूल और तुम बहुत पीछे लौट जा सकते हो।
चढ़ना बहुत कठिन है, उतरना कठिन नहीं है। एक क्षण में तुम न मालूम कितना उतर जा सकते हो, गिर जा सकते हो। उठने में युगों लग जाते हैं। यह भय है। और भविष्य के प्रति परिपूर्ण आस्था, आशा। ये दो बातें खयाल में रहें।
साधनसूत्र
ओशो
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