कोई को हम कहते हैं राम, किसी को कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। यह
तो पुकारू नाम है। तुम जब आये थे, तो कोई नाम लेकर न आये थे। तुम जब आये
थे, तब खाली, अनाम आये थे। तुम जब आये थे, तब कोई लेबिल तुम पर लगा न था। न
हिंदू थे, न मुसलमान थे, न जैन थे, न ईसाई थे। तुम जब आये थे, तब न सुंदर
थे, न कुरूप थे। तुम जब आये थे, न बुद्धू थे, न बुद्धिमान थे। तुम जब आये
थे, तब कोई विशेषण न लगा था। विशेषण-शून्य। तुम कौन थे तब?
ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया; उस ढांचे के पार कौन थे तुम? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि इसकी फिकिर न करेगी–हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप; स्त्री हो, पुरुष; धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही कर देगी। मिट्टी तुम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो फिर छिन जाएगा। उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही हो तुम।
ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ–किसी भांति इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान है। इसलिए महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है। वत्थू सहावो धम्मं। वस्तु के स्वभाव को जान लेना धर्म है। तुम्हारा जो स्वभाव है, उसको जान लेना तुम्हारा धर्म है। जैन और हिंदू और मुसलमान नहीं, तुम कौन हो इसे पहचान लेना धर्म है।
तुम जवानी हो
कि शैशव
आप अपना पाठ फिर दोहरा रहा है?
जिंदगी हो,
या सुनहला रूप धर कर
मृत्यु विचरण कर रही है?
कौन हो तुम? क्या है तुम्हारा नाम? कहां से आते हो? कहां को जाते हो? तो एक तो हमारे ऊपर पड़ी हुई पर्तें हैं, कंडीशनिंग, संस्कार। इन पर्तों की गहरी गहराई में कहीं हमारा स्वरूप दब गया है। जैसे हीरे पर मिट्टी चढ़ गयी हो। मिट्टी पर मिट्टी चढ़ती चली गयी हो। हीरा बिलकुल खो गया हो। फिर भी खो तो नहीं जाता, मिट्टी हीरे को मिटा तो नहीं सकती, दब जाता है।
महावीर कहते हैं, आत्मा सिर्फ दब गयी है। ध्यान से उस दबे तक कुआं खोदना है। अपने भीतर सारी पर्तों को तोड़कर उस जगह पहुंचना है जहां तोड़ने को कुछ भी न रह जाए।
जिन सूत्र
ओशो
ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया; उस ढांचे के पार कौन थे तुम? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि इसकी फिकिर न करेगी–हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप; स्त्री हो, पुरुष; धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही कर देगी। मिट्टी तुम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो फिर छिन जाएगा। उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही हो तुम।
ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ–किसी भांति इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान है। इसलिए महावीर ने तो धर्म की परिभाषा ही स्वभाव की है। वत्थू सहावो धम्मं। वस्तु के स्वभाव को जान लेना धर्म है। तुम्हारा जो स्वभाव है, उसको जान लेना तुम्हारा धर्म है। जैन और हिंदू और मुसलमान नहीं, तुम कौन हो इसे पहचान लेना धर्म है।
तुम जवानी हो
कि शैशव
आप अपना पाठ फिर दोहरा रहा है?
जिंदगी हो,
या सुनहला रूप धर कर
मृत्यु विचरण कर रही है?
कौन हो तुम? क्या है तुम्हारा नाम? कहां से आते हो? कहां को जाते हो? तो एक तो हमारे ऊपर पड़ी हुई पर्तें हैं, कंडीशनिंग, संस्कार। इन पर्तों की गहरी गहराई में कहीं हमारा स्वरूप दब गया है। जैसे हीरे पर मिट्टी चढ़ गयी हो। मिट्टी पर मिट्टी चढ़ती चली गयी हो। हीरा बिलकुल खो गया हो। फिर भी खो तो नहीं जाता, मिट्टी हीरे को मिटा तो नहीं सकती, दब जाता है।
महावीर कहते हैं, आत्मा सिर्फ दब गयी है। ध्यान से उस दबे तक कुआं खोदना है। अपने भीतर सारी पर्तों को तोड़कर उस जगह पहुंचना है जहां तोड़ने को कुछ भी न रह जाए।
जिन सूत्र
ओशो
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