मैंने सुना है, एक दफा स्वर्ग के द्वार पर दो आदमी साथ-साथ पहुंचे–एक
फकीर और एक राजनीतिज्ञ। द्वार खुला, फकीर को तो बाहर रोक दिया द्वारपाल ने,
राजनीतिज्ञ को बड़े बैंडबाजे बजाकर भीतर लिया। बड़े फूलहार, स्वागतद्वार!
फकीर बड़ा चिंतित हुआ। उसने कहा यह तो हद्द हो गयी अन्याय की! वहां भी यही
आदमी जमीन पर भी हार लेता रहा, हम सोचते थे कि कम से कम स्वर्ग में तो हमें
स्वागत मिलेगा, सांत्वना थी, वह भी गयी। यहां भी इस आदमी को फिर अंदर पहले
लिया गया, मुझे कहा कि रुको बाहर। यह कैसा स्वर्ग है! यहां भी राजनीतिज्ञ
ही चला जा रहा है! बड़े फूल बरसाये, दुदुंभी बजी।
जब सब शोरगुल बंद हो गया, तब फिर द्वार खुला और द्वारपाल ने कहा, अब आप…आप भी भीतर आ जाएं। उसने सोचा कि शायद मेरे लिए भी कोई इंतजाम होगा, लेकिन वहां कोई नहीं था; न बैंड, न बाजा। वह थोड़ा चकित हुआ। उसने कहा, क्षमा करें, लेकिन यह मामला क्या है? हम जिंदगीभर परमात्मा की पूजा और प्रार्थना में लगे रहे, और यह स्वागत! और यह आदमी कभी भूलकर भी परमात्मा का नाम न लिया! तो उस द्वारपाल ने कहा, तुम समझे नहीं। तुम्हारे जैसे फकीर तो सदा से आते रहे, राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है। और फिर सदियां बीत जाएंगी फिर शायद कभी आये! वह तो आता ही नहीं, इधर कभी आने का मौका ही नहीं मिलता।
बाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्तें पूरी करनी पड़ें–काया, वचन, मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। यह चेष्टा शुरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। कठिन होगा, असंभव नहीं।
और महावीर कहते हैं, जिस सुई में धागा पिरो लिया गया, वह गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है।
यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सुई में पोना ही है। इसे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं; वापिस उठ आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कारण है।
जिन सूत्र
ओशो
जब सब शोरगुल बंद हो गया, तब फिर द्वार खुला और द्वारपाल ने कहा, अब आप…आप भी भीतर आ जाएं। उसने सोचा कि शायद मेरे लिए भी कोई इंतजाम होगा, लेकिन वहां कोई नहीं था; न बैंड, न बाजा। वह थोड़ा चकित हुआ। उसने कहा, क्षमा करें, लेकिन यह मामला क्या है? हम जिंदगीभर परमात्मा की पूजा और प्रार्थना में लगे रहे, और यह स्वागत! और यह आदमी कभी भूलकर भी परमात्मा का नाम न लिया! तो उस द्वारपाल ने कहा, तुम समझे नहीं। तुम्हारे जैसे फकीर तो सदा से आते रहे, राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है। और फिर सदियां बीत जाएंगी फिर शायद कभी आये! वह तो आता ही नहीं, इधर कभी आने का मौका ही नहीं मिलता।
बाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्तें पूरी करनी पड़ें–काया, वचन, मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। यह चेष्टा शुरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। कठिन होगा, असंभव नहीं।
और महावीर कहते हैं, जिस सुई में धागा पिरो लिया गया, वह गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है।
यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सुई में पोना ही है। इसे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं; वापिस उठ आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कारण है।
जिन सूत्र
ओशो
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