साधना के बाद साक्षात तो होगा ही। उसे विचार में लेना व्यर्थ है। उसे
यदि किसी ने मान लिया तो साधना असंभव हो जाएगी। और साक्षात को बिना साधना
के मान लेना कितना आसान और सुखद है। उस भांति पाप से बिना मुक्त हुए ही,
मुक्ति का रस आ जाता है। और धोखे की एक गहरी धुंध में भिखमंगे बादशाह होने
का मजा ले लेते हैं!
आह! भिखमंगों को यह बताना कितना आनंद देता होगा कि वे भिखमंगे नहीं हैं, सम्राट हैं! और जो उन्हें ऐसा बताते हैं, वे यदि उन्हें बहुत श्रद्धा देते हों और उनके चरणों में सिर रखते हों तो आश्चर्य नहीं है! पाप से, दरिद्रता से, इससे सस्ती और कोई मुक्ति नहीं हो सकती है। थोथा तत्वज्ञान, सूडो फिलॉसफी बड़ी सस्ती मुक्ति दे देता है, जब कि साधना श्रम मांगती है।
आप भी तो ऐसे ही किसी तत्वज्ञान या तत्वज्ञानी के चक्कर में तो नहीं हैं? कोई संक्षिप्त और सस्ता रास्ता, शॉर्टकट आपने भी तो नहीं पकड़ लिया है? सबसे सस्ता यही है कि आत्मा शुद्ध बुद्ध है, वह स्वयं ब्रह्म है और इसलिए फिर कुछ करने जैसा नहीं है, अर्थात जो आप कर रहे हैं वह सब करने जैसा है, क्योंकि छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं है।
स्मरण रहे कि सत्य का भी दुरुपयोग हो सकता है। और श्रेष्ठ सत्य भी निकृष्ट असत्यों को छिपाने के काम में लाए जा सकते हैं।
ऐसा हुआ है और नित्य होता है। कायरता अहिंसा में छिपाई जा सकती है, और पाप आत्मा की शुद्ध बुद्धता के सिद्धांत में ढांके जा सकते हैं, और अकर्मण्यता संन्यास बन सकती है!
मैं आपको इन धोखों से सावधान करना चाहता हूं। जो इनसे सचेत नहीं है, वह स्वयं में बहुत प्रगति नहीं कर सकता है। पाप का, अंधकार का, जो घेरा हम पर है, उससे बचने को, उससे पलायन करने को किसी सिद्धात जाल की शरण न खोजें। उसे जानें और उससे परिचित हों। वह है। उसके होने को विस्मरण नहीं करना है। वह स्वप्नवत है, तो भी है। ’वह नहीं है’ ऐसा नहीं है। स्वप्न की भी अपनी सत्ता है। वह भी घेर लेता है और वह भी हममें आंदोलन करता है। उसे स्वप्न कह कर और मान कर ही कोई गति नहीं है। उससे जागे बिना कोई रास्ता नहीं है।
पर कोई चाहे तो बिना जागे भी, स्वप्न में ही जागने का स्वप्न देख सकता है। थोथा तत्वज्ञान, साधना शून्य तत्वज्ञान यही करता है। वह जगाता नहीं है, स्वप्न में ही जगाने का स्वप्न पैदा कर देता है।
यह स्वप्न के भीतर स्वप्न है। ऐसे स्वप्न आपने नहीं देखे हैं क्या, जिनमें आप देख रहे हों कि आप जागे हुए हैं? पाप नहीं है, अंधकार नहीं है, ऐसा कहने और विश्वास करने से कुछ भी नहीं होता है। इससे सत्य नहीं, केवल हमारी आकांक्षा की ही घोषणा होती है। हम चाहते हैं कि पाप न हो, अंधकार न हो। पर चाहना ही काफी नहीं है। अकेली चाह नपुंसक, इंपोटेंट है। और तब धीरे धीरे जैसे भिखमंगा सम्राट होने की चाह करते करते अंततः स्वप्न ही देखने लगे कि वह सम्राट हो गया है, ऐसी ही तत्वज्ञानियों की गति हो जाती है। वे चाहते चाहते उसे मान ही लेते हैं, जो कि केवल उन्होंने चाहा था, और जो उन्हें मिला नहीं है। पराजय को इस भांति भूलना आसान हो जाता है। और जो सत्य में नहीं मिला, उसे स्वप्न में मिला जान कर वे तृप्ति की श्वास ले पाते हैं!
आपके इरादे तो इस भांति तृप्त होने के नहीं हैं? अन्यथा आप एक गलत व्यक्ति के पास पहुंच गए हैं! मैं आपको कोई भी स्वप्न नहीं दे सकता हूं और आत्म वंचना के लिए भी कोई सहारा नहीं दे सकता हूं। मैं तो स्वप्न भंजक हूं और आपकी निद्रा को तोड़ना चाहता हूं। इससे पीड़ा भी हो, तो मुझे क्षमा करना। जागरण सच ही पीड़ा है, क्योंकि वही एकमात्र तपश्चर्या है।
इस पीड़ा, इस तप का प्रारंभ स्वयं की वास्तविक पापस्थिति, स्वयं की वास्तविकता को जानने से होता है। कोई भ्रम, इलूजन नहीं पालना है, और जो है और जैसा है, उसे वैसा ही जानना है। इससे दुख होगा, पीड़ा होगी, क्योंकि वे स्वप्न टूटेंगे जो कि मधुर थे और जिनमें कि हम सम्राट थे। सम्राट तो मिटेगा, भिखमंगा प्रकट होगा। सौंदर्य मिटेगा और कुरूपता प्रकट होगी। शुभ वाष्पीभूत हो जाएगा और अशुभ के दर्शन होंगे। वह पशु अपनी नग्नता में हमारे सामने होगा जो कि हममें छिपा है। यह आवश्यक है, अत्यंत आवश्यक है। इस पीड़ा से गुजरना अनिवार्य और अपरिहार्य, इनएविटेबल है, क्योंकि यह प्रसव पीड़ा है और इसके बाद ही इस पशु से मिलन के बाद ही, हममें उसका बोध स्पष्ट होना शुरू होता है जो कि पशु नहीं है।
इसलिए पाप से, पशु से, अंधकार से भागना साधना नहीं, पलायन है। वह शुतुरमुर्ग के तर्क की भांति है जो शत्रु को देख रेत में मुंह छिपा कर निश्चित खड़ा हो जाता है, यह सोच कर कि जो अब उसे नहीं दिखाई दे रहा है, वह अब नहीं है। काश, ऐसा ही होता! पर ऐसा नहीं है, शत्रु का न दिखाई पड़ना, उसका न हो जाना नहीं है। इस भांति तो वह और भी घातक हो जाएगा। आपकी आंखें बंद करने पर उसके और भी आसान शिकार हो जाएंगे! शत्रु है यदि तो आंखें और भी खुली चाहिए। उसका पूरा ज्ञान हमारे हित में है। अज्ञान से अहित के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता है। मैं इसलिए ही स्वयं की समग्र अंधकार स्थिति को उघाड़ कर देखने को कह रहा हूं।
अपने सारे वस्त्रों को अलग करके देखो कि आप क्या हैं?
अपने सारे सिद्धांतों को दूर रखकर देखो कि आप क्या हैं?
रेत से मुंह बाहर निकालो और देखो। वह आँख का खोलना ही, उस भांति देखना ही, एक परिवर्तन है—एक नये जीवन की शुरुआत है। आँख खुलते ही एक बदलाहट शुरू हो जाती है, और उसके बाद ही जो हम करते हैं, वह सत्य तक ले जाता है। अंधकार की पर्तों को उघाड़ कर प्रकाश तक चलना है। पाप की पर्तों को उघाड़ कर प्रभु तक चलना है। अज्ञान के विनाश से आत्मा को उपलब्ध करना है। साधना का यही सम्यक पथ है। और उसके पूर्व स्वप्न नहीं देखने हैं,आत्मा और परमात्मा के स्वप्न नहीं देखने हैं। सच्चिदानंद ब्रह्म स्वरूप के स्वप्न नहीं देखने हैं। वे सब शुतुरमुर्ग के रेत में मुंह छिपाने के उपाय हैं। वह पुरुषार्थ का मार्ग नहीं, पुरुषार्थहीनो की मिथ्या तृप्ति है।
साधनापथ
ओशो
आह! भिखमंगों को यह बताना कितना आनंद देता होगा कि वे भिखमंगे नहीं हैं, सम्राट हैं! और जो उन्हें ऐसा बताते हैं, वे यदि उन्हें बहुत श्रद्धा देते हों और उनके चरणों में सिर रखते हों तो आश्चर्य नहीं है! पाप से, दरिद्रता से, इससे सस्ती और कोई मुक्ति नहीं हो सकती है। थोथा तत्वज्ञान, सूडो फिलॉसफी बड़ी सस्ती मुक्ति दे देता है, जब कि साधना श्रम मांगती है।
आप भी तो ऐसे ही किसी तत्वज्ञान या तत्वज्ञानी के चक्कर में तो नहीं हैं? कोई संक्षिप्त और सस्ता रास्ता, शॉर्टकट आपने भी तो नहीं पकड़ लिया है? सबसे सस्ता यही है कि आत्मा शुद्ध बुद्ध है, वह स्वयं ब्रह्म है और इसलिए फिर कुछ करने जैसा नहीं है, अर्थात जो आप कर रहे हैं वह सब करने जैसा है, क्योंकि छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं है।
स्मरण रहे कि सत्य का भी दुरुपयोग हो सकता है। और श्रेष्ठ सत्य भी निकृष्ट असत्यों को छिपाने के काम में लाए जा सकते हैं।
ऐसा हुआ है और नित्य होता है। कायरता अहिंसा में छिपाई जा सकती है, और पाप आत्मा की शुद्ध बुद्धता के सिद्धांत में ढांके जा सकते हैं, और अकर्मण्यता संन्यास बन सकती है!
मैं आपको इन धोखों से सावधान करना चाहता हूं। जो इनसे सचेत नहीं है, वह स्वयं में बहुत प्रगति नहीं कर सकता है। पाप का, अंधकार का, जो घेरा हम पर है, उससे बचने को, उससे पलायन करने को किसी सिद्धात जाल की शरण न खोजें। उसे जानें और उससे परिचित हों। वह है। उसके होने को विस्मरण नहीं करना है। वह स्वप्नवत है, तो भी है। ’वह नहीं है’ ऐसा नहीं है। स्वप्न की भी अपनी सत्ता है। वह भी घेर लेता है और वह भी हममें आंदोलन करता है। उसे स्वप्न कह कर और मान कर ही कोई गति नहीं है। उससे जागे बिना कोई रास्ता नहीं है।
पर कोई चाहे तो बिना जागे भी, स्वप्न में ही जागने का स्वप्न देख सकता है। थोथा तत्वज्ञान, साधना शून्य तत्वज्ञान यही करता है। वह जगाता नहीं है, स्वप्न में ही जगाने का स्वप्न पैदा कर देता है।
यह स्वप्न के भीतर स्वप्न है। ऐसे स्वप्न आपने नहीं देखे हैं क्या, जिनमें आप देख रहे हों कि आप जागे हुए हैं? पाप नहीं है, अंधकार नहीं है, ऐसा कहने और विश्वास करने से कुछ भी नहीं होता है। इससे सत्य नहीं, केवल हमारी आकांक्षा की ही घोषणा होती है। हम चाहते हैं कि पाप न हो, अंधकार न हो। पर चाहना ही काफी नहीं है। अकेली चाह नपुंसक, इंपोटेंट है। और तब धीरे धीरे जैसे भिखमंगा सम्राट होने की चाह करते करते अंततः स्वप्न ही देखने लगे कि वह सम्राट हो गया है, ऐसी ही तत्वज्ञानियों की गति हो जाती है। वे चाहते चाहते उसे मान ही लेते हैं, जो कि केवल उन्होंने चाहा था, और जो उन्हें मिला नहीं है। पराजय को इस भांति भूलना आसान हो जाता है। और जो सत्य में नहीं मिला, उसे स्वप्न में मिला जान कर वे तृप्ति की श्वास ले पाते हैं!
आपके इरादे तो इस भांति तृप्त होने के नहीं हैं? अन्यथा आप एक गलत व्यक्ति के पास पहुंच गए हैं! मैं आपको कोई भी स्वप्न नहीं दे सकता हूं और आत्म वंचना के लिए भी कोई सहारा नहीं दे सकता हूं। मैं तो स्वप्न भंजक हूं और आपकी निद्रा को तोड़ना चाहता हूं। इससे पीड़ा भी हो, तो मुझे क्षमा करना। जागरण सच ही पीड़ा है, क्योंकि वही एकमात्र तपश्चर्या है।
इस पीड़ा, इस तप का प्रारंभ स्वयं की वास्तविक पापस्थिति, स्वयं की वास्तविकता को जानने से होता है। कोई भ्रम, इलूजन नहीं पालना है, और जो है और जैसा है, उसे वैसा ही जानना है। इससे दुख होगा, पीड़ा होगी, क्योंकि वे स्वप्न टूटेंगे जो कि मधुर थे और जिनमें कि हम सम्राट थे। सम्राट तो मिटेगा, भिखमंगा प्रकट होगा। सौंदर्य मिटेगा और कुरूपता प्रकट होगी। शुभ वाष्पीभूत हो जाएगा और अशुभ के दर्शन होंगे। वह पशु अपनी नग्नता में हमारे सामने होगा जो कि हममें छिपा है। यह आवश्यक है, अत्यंत आवश्यक है। इस पीड़ा से गुजरना अनिवार्य और अपरिहार्य, इनएविटेबल है, क्योंकि यह प्रसव पीड़ा है और इसके बाद ही इस पशु से मिलन के बाद ही, हममें उसका बोध स्पष्ट होना शुरू होता है जो कि पशु नहीं है।
इसलिए पाप से, पशु से, अंधकार से भागना साधना नहीं, पलायन है। वह शुतुरमुर्ग के तर्क की भांति है जो शत्रु को देख रेत में मुंह छिपा कर निश्चित खड़ा हो जाता है, यह सोच कर कि जो अब उसे नहीं दिखाई दे रहा है, वह अब नहीं है। काश, ऐसा ही होता! पर ऐसा नहीं है, शत्रु का न दिखाई पड़ना, उसका न हो जाना नहीं है। इस भांति तो वह और भी घातक हो जाएगा। आपकी आंखें बंद करने पर उसके और भी आसान शिकार हो जाएंगे! शत्रु है यदि तो आंखें और भी खुली चाहिए। उसका पूरा ज्ञान हमारे हित में है। अज्ञान से अहित के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता है। मैं इसलिए ही स्वयं की समग्र अंधकार स्थिति को उघाड़ कर देखने को कह रहा हूं।
अपने सारे वस्त्रों को अलग करके देखो कि आप क्या हैं?
अपने सारे सिद्धांतों को दूर रखकर देखो कि आप क्या हैं?
रेत से मुंह बाहर निकालो और देखो। वह आँख का खोलना ही, उस भांति देखना ही, एक परिवर्तन है—एक नये जीवन की शुरुआत है। आँख खुलते ही एक बदलाहट शुरू हो जाती है, और उसके बाद ही जो हम करते हैं, वह सत्य तक ले जाता है। अंधकार की पर्तों को उघाड़ कर प्रकाश तक चलना है। पाप की पर्तों को उघाड़ कर प्रभु तक चलना है। अज्ञान के विनाश से आत्मा को उपलब्ध करना है। साधना का यही सम्यक पथ है। और उसके पूर्व स्वप्न नहीं देखने हैं,आत्मा और परमात्मा के स्वप्न नहीं देखने हैं। सच्चिदानंद ब्रह्म स्वरूप के स्वप्न नहीं देखने हैं। वे सब शुतुरमुर्ग के रेत में मुंह छिपाने के उपाय हैं। वह पुरुषार्थ का मार्ग नहीं, पुरुषार्थहीनो की मिथ्या तृप्ति है।
साधनापथ
ओशो
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