“भगवान श्री, अमेरिका, इंग्लैंड, तथा अन्य देशों में आजकल
“कृष्ण-चेतना-आंदोलन’ बहुत तेजी से चल रहा है और वे संकीर्तन वगैरह का बहुत
उपयोग करते हैं। इससे ऐसा मालूम होता है कि कोई नया “वेराइटी आइटम’ या कोई
मनोवैज्ञानिक चीज है, या कोई नया “फैड’। या क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि
वहां कृष्ण-जन्म की कोई पूर्व भूमिका बन रही है?’
बड़े गहरे “इंप्लीकेशंस’ हैं। कृष्ण-चेतना का आंदोलन, “कृष्ण
कांशसनेस’ का आंदोलन यूरोप-अमेरिका में रोज जोर पकड़ता जाता है। जैसे किसी
दिन चैतन्य बंगाल के गांवों में नाचते हुए गूंजे व निकले थे, वैसा आज
न्यूयार्क और लंदन की सड़कों पर भी हरिकीर्तन सुनाई पड़ता है। यह आकस्मिक
नहीं है।
असल में जहां चैतन्य व्यक्तिगत रूप से थक गए थे वहां पश्चिम सामूहिक रूप
से थक रहा है। चैतन्य सोच-सोचकर व्यक्तिगत रूप से थक गए थे और पाया था कि
सोचने से पार नहीं है, और पश्चिम सामूहिक रूप से सोचने से थक गया है।
सुकरात से लेकर बर्ट्रेंड रसल तक पश्चिम ने सिर्फ सोचा ही है और सोच-सोचकर
ही खोजने की कोशिश की है सत्य को। बड़ी विराट साधना थी यह भी, बड़ा अनूठा
प्रयोग था कि पश्चिम ने अपने पूरे प्राण इस बात पर लगा दिए हैं, सुकरात से
लेकर रसल तक, कि हम सोचकर ही सत्य को पा लेंगे और सत्य को किसी-न-किसी तरह
“लाजिक’ और तर्क की सीमा में उपलब्ध करना है। और उस सत्य को पश्चिम निरंतर
इनकार करता रहा है जो तर्क की सीमा में नहीं आता है। जो अतक्र्य है, उसको
उसने कहा, नहीं हम मानेंगे जब तक हमारी बुद्धि और मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर
लेते।
इन पच्चीस सौ साल की यात्रा में पश्चिम ने गहन तर्क किया है। पश्चिम
सामूहिक रूप से थक गया और सत्य की कोई झलक नहीं मिली। बार-बार लगा कि यह
रहा, यह रहा, अब पास है, पास है, और पास पहुंचकर पाया कि नहीं, फिर
“कांसेप्ट’ ही हाथ में रह गए, सिद्धांत ही हाथ में रह गए, सत्य नहीं है।
पश्चिम की सामूहिक चेतना, “कलेक्टिव कांशसनेस’ उस जगह आ रही है जहां
चैतन्य व्यक्तिगत रूप से आ गए हैं। इसलिए पश्चिम में “एक्सप्लोज़न’ संभावी
है–जो हो रहा है। वसंत के पहले फूल आने शुरू हो गए हैं। जगह-जगह विस्फोट हो
रहा है। पश्चिम की युवा पीढ़ी जगह-जगह टूट रही है और जगह-जगह उसने अचिंत्य
की दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। और अगर अचिंत्य की दिशा में कदम
रखने हैं, तो कृष्ण से ज्यादा ठीक प्रतीक दूसरा नहीं है। महावीर के वक्तव्य
बहुत तर्कयुक्त हैं। अगर महावीर रहस्य की बात भी करते हैं तो भाषा सदा
तर्क की है। अगर महावीर कभी भी कोई बात करते हैं, तो विचार की संगति कभी भी
टूटती नहीं। बुद्ध अगर पाते हैं कि कोई बात रहस्य की है, तो चर्चा करने से
इनकार कर देते हैं। उसकी चर्चा नहीं करते। वह कह देते हैं, अव्याख्येय।
इसकी बात नहीं होगी। बात वहीं तक करेंगे, जहां तक तर्क है।
पश्चिम के चित्त में आज जो तनाव है, वह चिंतन से पैदा हुआ तनाव है। जो
“एंग्जाइटी’ है, जो “मेंटल एंग्विश’ है, जो संताप है, वह परम तक चिंतन को
खींचने का परिणाम है। “अल्टीमेट’ तक चिंतन को खींचा गया है, जहां उसकी दम
टूटी जा रही है। वहां नई पीढ़ियां बगावत करेंगी। यह बगावत बहुत रूपों में
प्रकट होगी। क्योंकि चैतन्य एक आदमी थे, एक रूप में होगी। एक पीढ़ी जब बगावत
करती है, तो बहुत रूपों में प्रगट होगी। उस अचिंत्य में यात्रा करने के
लिए कोई भजन-कीर्तन कहकर कृष्ण-नाम जपने लगेगा, कोई उस अचिंत्य में प्रवेश
करने के लिए भारत चला जाएगा और हिमालय की यात्रा करने लगेगा। कोई उस
अचिंत्य की खोज में झेन फकीरों के पास जापान चला जाएगा। वह अचिंत्य की खोज
चल रही है।
लेकिन, मुझे लगता है कि कृष्ण इस अचिंत्य की खोज में धीरे-धीरे पश्चिम
के निकट आते चले जाएंगे। एल.एस.डी. दूरगामी साथी नहीं हो सकता। और कब तक
लोग भारत की यात्रा करते रहेंगे और कितने लोग यात्रा करते रहेंगे? और कब तक
लोग जापान में जाकर झेन फकीरों के चरणों में बैठते रहेंगे? पश्चिम को अपनी
ही चेतना खोजनी पड़ेगी। यह उधार बातें ज्यादा देर नहीं चल सकती हैं।
तो पश्चिम के चित्त में वह घटना टूट रही है और बड़े मजे की बात है अगर
हिंदुस्तान में आप किसी व्यक्ति को भजन-कीर्तन करते देखें, तो उसके चेहरे
पर वह आनंद का भाव नहीं होगा जो लंदन के लड़के और लड़कियां जब भजन-कीर्तन
करते हैं तो उनके चेहरे पर है। हमारे लिए वह पिटा-पिटाया क्रम है, घिसा हुआ
सिक्का है। हम सब भलीभांति जानते हैं कि क्या कर रहे हैं। उनके लिए बड़ा
नया सिक्का है। वह उनके लिए छलांग है। हमारे लिए परंपरा है, हमारे लिए
“ट्रेडीशन’ है, उनके लिए बिलकुल “एंटी-ट्रेडीशनल’ है।
जब सड़क से लंदन की
कोई गुजरता है मंजीरे बजाते हुए और नाचते हुए, तो ट्रैफिक का पुलिस वाला भी
खड़ा होकर सोचता है कि दिमाग खराब हो गया! हमारे मुल्क में कोई नहीं
सोचेगा। नहीं कोई करता है, उसी का दिमाग खराब है। जो करता है, उसका दिमाग
तो बिलकुल ठीक है। लेकिन दुनिया के धर्म पागलों से चलते हैं, बुद्धिमानों
से नहीं। दुनिया में सारे-के-सारे, जिनको “ब्रेक थ्रू’ कहें हम, जहां चीजें
टूटती हैं और बदलती हैं, वे पागलों से होती हैं, दीवानों से होती हैं।
हमारे मुल्क में भजन-कीर्तन करना दीवानगी नहीं है। कभी रही होगी। चैतन्य जब
बंगाल में नाचा तो दीवाना था। लोगों ने समझा कि पागल हो गया। अब नहीं है
वह बात! “ट्रेडीशन’ सबको पचा जाती है, बड़े-से-बड़े पागलों को पचा जाती है।
उनको भी जगह बना देती है कि यह रहा तुम्हारा घर, तुम भी विश्राम करो।
पश्चिम में एक विस्फोट की हालत है। इसलिए पश्चिम का युवा-चित्त जब नाचता
है, तो उस नाच में बड़ी मोहकता है, बड़ी सरलता है। कृष्ण-जन्म की कोई तैयारी
नहीं हो रही, लेकिन कृष्ण-चेतना के जन्म की तैयारी जरूर हो रही है।
कृष्ण-चेतना का कोई संबंध कृष्ण से नहीं है। कृष्ण-चेतना प्रतीक शब्द है,
जिसका मतलब है ऐसी चेतना की संभावना पश्चिम में हो रही है कि लोग काम को
छोड़ेंगे और उत्सव को पकड़ेंगे। हां, “सिंबालिक’, प्रतीकात्मक रूप से काम
बेमानी हो गया। पश्चिम बहुत काम कर चुका, पश्चिम बहुत चिंतन कर चुका,
पश्चिम बहुत…मनुष्य जो भी कर सकता था मनुष्य की सीमाओं में वह सब कर चुका
और थक गया, बुरी तरह थक गया। या तो पश्चिम मारेगा, या कृष्ण-चेतना में
प्रवेश करेगा। और मरता तो कुछ नहीं। कृष्ण-चेतना में प्रवेश करना होगा।
क्राइस्ट उतने प्रतीकात्मक आज पश्चिम को नहीं मालूम होते हैं। उसका भी
वही कारण है, “ट्रेडीशन’। क्राइस्ट अब “ट्रेडीशन’ हैं और कृष्ण अब
“एंटी-ट्रेडीशन’ हैं। कृष्ण जो हैं वह चुनाव है; और क्राइस्ट जो हैं वह कोई
चुनाव नहीं है, आरोपण है। फिर क्राइस्ट गंभीर हैं। और पश्चिम गंभीरता से
ऊब गया है। “टू मच सीरियसनेस’ अंततः “डिसीज्ड़’ हो जाती है। बहुत ज्यादा
गंभीरता गहरे में रुग्णता बन जाती है। तो पश्चिम गंभीरता से उठना चाहता है।
“क्रास’ का बड़ा गंभीर प्रतीक है। “क्रास’ पर लटका हुआ जीसस बड़ा गंभीर
व्यक्तित्व है। पश्चिम घबड़ा गया है। हटाओ “क्रास’ को, लाओ बांसुरी को। और
“क्रास’ के खिलाफ अगर कोई भी प्रतीक दुनिया में खोजने जाएंगे तो बांसुरी के
सिवा मिलेगा भी क्या! इसलिए कृष्ण की “अपील’ और कृष्ण के निकट आने की
संभावना पश्चिम के चित्त की रोज बढ़ती चली जाएगी।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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