और भी कारण हैं।
कृष्ण के करीब सिर्फ “एफ्युलेंट सोसाइटी’ हो सकती है। कृष्ण के करीब
सिर्फ वैभव-संपन्न समाज हो सकता है। क्योंकि बांसुरी बजाने की चैन गरीब,
दीन-दरिद्र समाज में नहीं हो सकती। कृष्ण जिस दिन पैदा हुए उन दिनों के
मापदंड से कृष्ण का समाज काफी संपन्न समाज था। खाने-पीने को बहुत था। दूध
और दही तोड़ा-फोड़ा जा सकता था। दूध और दही की मटकियां सड़कों पर गिराई जा
सकती थीं। उन दिनों के हिसाब से, उन दिनों के “स्टैंडर्ड आफ लिविंग’ से
संपन्न समाज था–संपन्नतम समाज था। सुखी लोग थे, खाने-पीने को बहुत था।
पहनने-ओढ़ने को बहुत था। एक आदमी काम कर लेता और पूरा परिवार बांसुरी बजा
सकता था। उस संपन्न क्षण में कृष्ण की “अपील’ पैदा हुई थी।
पश्चिम अब फिर आज के मापदंडों के हिसाब से संपन्न हो रहा है। शायद भारत
में कृष्ण के लिए अभी बहुत दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अभी भारत के मन
में कृष्ण बहुत ज्यादा गहरे नहीं उतर सकते। क्योंकि दीन-दरिद्र समाज
बांसुरी बजाने की बात नहीं सोचता, उसको तो लगता है, क्राइस्ट ही ठीक हैं।
जो खुद ही सूली पर लटका है रोज, उसके लिए क्राइस्ट ही ठीक मालूम पड़ सकते
हैं। इसलिए यह बड़ी अनहोनी घटना घट रही है कि हिंदुस्तान में रोज-रोज
क्राइस्ट का प्रभाव बढ़ रहा है और पश्चिम में रोज क्राइस्ट का प्रभाव कम हो
रहा है। अगर कोई यह सोचता हो कि यह “मिशनरी’ लोगों को बरगला कर और ईसाई बना
रहा है, इतना ही काफी नहीं है।
ईसा का प्रतीक हिंदुस्तान के दीन-दुखी मन
के बहुत करीब पड़ रहा है। सिर्फ “मिशनरी’ बरगला नहीं सकता। अगर वह बरगला भी
सकता है तो सिर्फ इसीलिए कि वह प्रतीक निकट आ रहा है। अब कृष्ण की
स्वर्ण-मूर्ति और राम के वैभव में खड़ी हुई मूर्तियां हिंदुस्तान के गरीब मन
के बहुत विपरीत पड़ती हैं। बहुत दूर न होगा वह दिन जिस दिन कि हिंदुस्तान
का गरीब अमीर पर ही न टूटे, कृष्ण और राम पर भी टूट पड़े। इसमें बहुत कठिनाई
नहीं होगी। क्योंकि ये स्वर्ण-मूर्तियां नहीं चल सकतीं। लेकिन क्राइस्ट का
सूली पर लटका हुआ व्यक्तित्व गरीब के मन के बहुत करीब आ जाता है।
हिंदुस्तान के ईसाई होने की बहुत संभावनाएं हैं, उसी तरह, जैसे पश्चिम के
कृष्ण के निकट आने की संभावनाएं हैं।
पश्चिम के मन में अब “क्रास’ का कोई अर्थ नहीं रहा है। न पीड़ा है, न दुख
है। वे दुख और पीड़ा के दिन गए। सचाई यह है कि अब एक ही दुख है कि संपन्नता
बहुत है, इस संपन्नता के साथ क्या करें! सब कुछ है, अब इसके साथ क्या
करें! निश्चित ही कोई नाचता हुआ प्रतीक, कोई गीत गाता प्रतीक, कोई नृत्य
करता प्रतीक पश्चिम के करीब पड़ जाएगा। और इसलिए पश्चिम का मन अगर कृष्ण की
धुन से भर जाए, तो आश्चर्य नहीं है।
ओशो
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