हमारे लिए भी कुछ बीज बातें हैं, वह हम समझ लें तो खयाल में आ जाए। कोई
आदमी चिंतित होता है तो फौरन माथे पर हाथ रख लेता है। आप उसका हाथ नीचे रोक
लें, वह बहुत बेचैनी में पड़ जाएगा। कोई आदमी परेशान होता है तो एक विशेष
आसन में बैठ जाता है; आप उसको उसमें न बैठने दें, वह बहुत मुश्किल में पड़
जाएगा।
डा.हरिसिंह गौर प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ते थे। उनकी सदा की आदत
थी कि वह अपनी कोट का जो ऊपर बटन होता था, जब कभी कोई उलझन का मामला हाता
और दलील करनी कठिन होती, तो कोट के ऊपर का बटन घुमाते लगते थे। जिन लोगों
ने भी उनके साथ वकालत की थी उन सबको पता था कि उनका कोट के बटन पर हाथ गया
कि उनकी वाणी प्रखर हो जाती थी। और वह इस तरह बोलने लगते थे जैसे कि इसके
पहले बोल ही नहीं रहे थे। एक बड़ा मुकदमा था और विरोधी वकील बड़ी परेशानी में
पड़ा था। उसने डा.हरिसिंह गौर के शोफर को कहा कि जितना पैसा तुझे चाहिए, वे
ले ले, लेकिन कल जब तू कोट कार से उतार कर लाए, तो उसकी ऊपर की बटन तोड़कर
फेंक देना। बटन उसने तुड़वाकर फिंकवा दी।
उस दिन आखिरी पैरवी थी। हरिसिंह गौर ने अपना कोट अपने गले में डाल लिया,
लटका लिया और वह विवाद करने को खड़े हो गए। ठीक उस क्षण पर, जबकि उनका हाथ
खोजने लगा बटन को, पाया कि बटन वहां नहीं है। वह एकदम बेहोश होकर गिर गए
कुर्सी पर। उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मेरी जिंदगी में पहली
दफे मेरे मस्तिष्क ने काम करना एकदम बंद कर दिया। मुझे ऐसा लगा कि जैसे सब
खो गया, अब मैं कुछ बोल सकूंगा नहीं, अब कुछ हो सकता नहीं। मजिस्ट्रेट से
उन्हें प्रार्थना करनी पड़ी कि अब यह मुकदमा आगे के लिए टाल दिया जाए। आज
मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है।
बड़ी अजीब-सी बात मालूम पड़ती है। एक बटन इतना अर्थ रख सकता है?
“एसोसिएशन’ का अर्थ है। अगर सदा ही उस बटन पर हाथ रखकर मन सक्रिय हो गया
है, तो आज उस बटन को न पाकर मन एकदम निष्क्रिय हो जाएगा। यह “कंडीशन
रिफ्लेक्स’ की बात है। नाम का प्रयोग भी इस भांति किया गया है। वह जो बटन
था, हरिसिंह गौर के लिए बीज हो गया। साधारण बटन नहीं रहा जिससे सिर्फ कोट
लगाया और अटकाया जाता है, इस बटन से उनका मन भी अटकने और लगने लगा। नाम का
उपयोग इस भांति किया जा सकता है। किया गया है। लेकिन, खाली शब्द का उपयोग
करने से कुछ भी नहीं होता है। खाली शब्द और बीज-शब्द में वही फर्क है।
बीज-शब्द का अर्थ यह है कि आपकी अचेतन गहराइयों में उसे डाला जाए और इतने
गहरे में बिठा दिया जाए कि उसके स्मरण मात्र से आप तत्काल रूपांतरित हो
जाएं। तो वह बीज बन जाता है।
कृष्ण, राम, या बुद्ध, या महावीर, या और तरह के शब्द और मंत्र बीज की
तरह उपयोग किए गए हैं, लेकिन अब लोग उनको ऐसे ही दोहरा रहे हैं। बैठे हुए
हजार दफे राम-राम कह रहे हैं, कुछ भी नहीं होता। बीज होता तो एक बार में भी
होता है, हजार बार कहने की बात न थी। और राम से ही होगा, ऐसा नहीं, कोई भी
अ, ब, स शब्द को बीज बनाया जा सकता है और आपके व्यक्तित्व में गहरे में
डाला जा सकता है। शब्द और मंत्र बीज बन जाए तो साधक की गहराइयों को
रूपांतरित करने में उपयोगी होते हैं। हो सकते हैं। लेकिन हमारी कठिनाई यह
है कि मूल सूत्र खो जाते हैं, ऊपरी बातें रह जाती हैं। कोई भी राम-राम जपता
रहता है, कोई भी कृष्ण-कृष्ण चिल्लाता रहता है, उससे कुछ हो सकता नहीं।
कभी नहीं होगा। जीवन भर चिल्लाने से भी नहीं होगा।
कीर्तन के लिए पूछते हैं। ध्यान का जो उपयोग हम कर रहे हैं, उसमें जो
दूसरा चरण है, ठीक वही उपयोग कीर्तन का किया जा सकता है। किया जाता रहा है।
जो जानते हैं उन्होंने वैसा ही उपयोग किया है। जो नहीं जानते हैं, वे
सिर्फ चिल्लाते हैं, नाचते हैं। ध्यान का जो दूसरा चरण है, अगर ठीक वैसा ही
उपयोग कीर्तन का, भजन का, नृत्य का किया जा सके, तो उसके बड़े व्यापक
परिणाम हैं। पहला परिणाम तो यह है कि जब आप बहुत ही भाव से नाचने लगे, तो
शरीर आपको अलग दिखाई पड़ने लगेगा। शरीर पृथक मालूम होने लगेगा, आप अलग मालूम
होने लगेंगे। आप थोड़ी ही देर में देखने वाले हो जाएंगे, नाचने वाले नहीं।
जब शरीर पूरी त्वरा में आएगा, पूरी गति में आएगा नृत्य की, तब आप अचानक एक
क्षण ऐसा है जब आप पाएंगे कि आप अलग हो गए हैं। उस क्षण को अलग करने के लिए
उपाय किए गए थे कि वह क्षण अलग हो जाए और आप अलग हो गए हैं। उस क्षण को
अलग करने के लिए उपाय किए गए थे कि वह क्षण अलग हो जाए और आप तत्काल टूट
जाएं, नृत्य बाहर रह जाए और आप अलग खड़े हो जाएं। कील अलग हो जाए, चाक घूमता
रहे। और कील पहचान ले कि मैं कील हूं, और घूमता हुआ जो है वह चाक है।
नृत्य का उपयोग चाक की तरह किया गया है। जोर से घूमे, तो एक घड़ी आ जाती
है जहां कील दिखाई पड़ने लगती है। यह बड़े मजे की बात है, अगर चाक और कील खड़े
हों, तो कील और चाक का पता लगाना मुश्किल है कि कौन कील है और कौन चाक है,
क्योंकि दोनों खड़े हैं। चाक चले, तो कील का फर्क फौरन पता चल जाता है। जो
नहीं चलेगी वह पहचान में आ जाएगी। नाचें आप, आपके पीछे भीतर कुछ छूट जाएगा
जो नहीं नाच रहा है। बस, वह आपकी कील है। वह आपका “सेंटर’ है। जो नाच रहा
है, वह आपकी परिधि है। वह आपका चाक है। इस क्षण में अगर साक्षी हो जाएं, तो
कीर्तन का अदभुत उपयोग हो गया। लेकिन अगर साक्षी न हुए और कीर्तन ही करते
रहे, तो बेकार चली गई मेहनत, उसका कोई अर्थ न रहा।
प्रक्रियायें पैदा होती हैं और खो जाती हैं। खो जाती हैं इसीलिए कि सब
प्रक्रियायें अनिवार्यरूपेण, मनुष्य का जैसा स्वभाव है, वह उसमें जो सार्थक
है भूल जाता है और जो निरर्थक है उसको पकड़ लेता है। क्योंकि जो सार्थक है,
वह गहरे में होता है, जो निरर्थक है, वह ऊपर होता है। जो निरर्थक है वह
वस्त्र की तरह ऊपर होता है, जो सार्थक है, वह आत्मा की तरह भीतर होता है।
जो भीतर है वह दिखाई नहीं पड़ता, धीरे-धीरे ऊपर का ही रह जाता है, भीतर का
भूल जाता है। और इसलिए ऐसे वक्त आ जाते हैं, जैसे मैं ही हूं, मुझसे कोई
पूछने आए कि कीर्तन से कुछ होगा तो मैं सख्ती से मना करता हूं कि कुछ भी
नहीं होगा। क्योंकि मैं जानता हूं कि अब कीर्तन मृत परंपरा हो गई है। अब
मरा हुआ ढांचा रह गया है। वह चाक ही है, कील का पता लगाना बहुत मुश्किल है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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