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Saturday, October 3, 2015

पशुत्व का अतिक्रमण भाग २

हिंसा भी मनुष्य का पशु जीवन में ग्रहण किया गया संस्कार है। पशु जी नहीं सकता बिना हिंसा के और हम हिंसा के साथ न जी सकेंगे। पशु नहीं जी सकता बिना हिंसा के और आदमी पैदा ही नहीं होता हिंसा के साथ। इसलिए आदमी दस हजार साल से सिवाय लड़ने के और कुछ भी नहीं कर रहा है; जी नहीं रहा है, सिर्फ लड़ रहा है। अगर हम ऐसा कहें कि आदमी सिर्फ लड़ने के लिए ही जी रहा है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

पिछले तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए। और ये युद्ध तो बड़े पैमाने की बात है, चौबीस घंटे भी हम लड़ रहे हैं। चौबीस घंटों में ऐसे क्षण खोजने कठिन हैं, जब हम किसी तरह की लड़ाई में संलग्न न हों। कभी हम धन के लिए लड़ रहे हैं। कभी हम यश के लिए लड़ रहे हैं। कभी हम पद के लिए लड़ रहे हैं। कभी हम शत्रुओं से लड़ रहे हैं। कभी मित्रों से लड़ रहे हैं। और हमारी लड़ाई राजनीति बन जाती है। और कभी हम धन के लिए लड़ रहे हैं और हमारी लोलुपता शोषण बन जाती है। और कभी हम अकारण भी लड़ रहे हैं, क्योंकि लड़ने की वह जो आदत है, वह मांग करती है कि लड़ो।

एक आदमी शिकार करने जा रहा है, वह अकारण लड़ रहा है। खेल में लड़ रहा है। अगर कुछ न हो तो हम ऐसे खेल विकसित करेंगे, जिनसे लड़ने की वृत्ति तृप्त हो। हमारे सब खेल लड़ने के मिनिएचर हैं, वह लड़ने के छोटे-छोटे रूप हैं। खेल हमारी लड़ाइयां हैं–व्यर्थ की लड़ाइयां। जहां कोई कारण नहीं है। और जब लड़ने के लिए कोई कारण न मिले, तो भी हम अकारण लड़ना चाहेंगे। अगर युद्ध में न लड़ सकें, तो शतरंज की गोटियां बिठाकर युद्ध करना चाहेंगे। शतरंज में भी तलवारें खिच जाती हैं, तो बहुत आश्चर्य नहीं है। शतरंज भी, बहुत गहरे में दूसरे को हराने की आकांक्षा है, और दूसरों से लड़ने का रस है।

हमारे सारे खेल युद्ध के रूप हैं। या तो ऐसा कहें कि हमारे सारे खेल युद्ध के रूप हैं या ऐसा भी कह सकते हैं कि युद्ध भी हमारा सबसे भयंकर खेल है। लेकिन आदमी लड़ रहा है। जिन्हें हम संबंध कहते हैं, रिलेशनशिप कहते हैं, वे भी हमारी लड़ाइयां हैं। पति और पत्नी को अगर कोई मंगल ग्रह का यात्री आकर चौबीस घंटे देखता रहे, तो वह यह न मान सकेगा कि ये दोनों आदमी साथ रहने के लिए राजी हुए हैं। वह इतना ही समझ पायेगा कि ये दोनों आदमी इस बात के लिए राजी हुए हैं कि हम चौबीस घंटे लड़ते रहेंगे। शायद जिसे हम परिवार कहते हैं, वह उन लोगों की संस्था है, जिन्होंने यह तय किया हुआ है कि लड़ेंगे भी और हटेंगे भी नहीं! दूर भी न होंगे!
जीवन चारों तरफ हिंसा है। यह हिंसा रोग है मनुष्य के लिए। यह हिंसा अब अनिवार्य नहीं है, पशु के लिए रही होगी।

और साथ में स्मरण रखें, जैसे ही विकास का नया चरण उठाया जाता है, नई जिम्मेदारियों और नए दायित्वों में भी चरण उठ जाता है। एवरी स्टेप आफ इवोल्यूशन इज ए स्टेप इन ग्रेटर रिस्पांसिबिलिटी। वह तो बड़े दायित्व में ले ही जायेगा। जिस दिन से पशु को छोड़कर मनुष्य मनुष्य हुआ है, उसी दिन से अहिंसा उसके दायित्व का हिस्सा हो गई। क्योंकि मनुष्य का फूल खिल ही नहीं सकता हिंसा के बीच, वह प्रेम के बीच ही उसका पूरा फूल खिल सकता है। इसलिए मैंने कहा कि अहिंसा स्वास्थ्य है, हिंसा रोग है। हिंसा से बड़ा शायद और कोई रोग नहीं है।

और हमारे हजार-हजार रोग शायद हिंसा से ही पैदा होते हैं। अगर पागलखाने में जायें तो सौ पागलों में से निन्यान्बे पागल सिर्फ इसलिए पागल हुए मिलेंगे कि साधारण रहकर हिंसा करनी उन्हें असंभव हो गई थी। हिंसा करने के लिए उन्हें पागल होने की स्वतंत्रता जरूरी थी; इसलिए पागल हो जाना पड़ा। अगर हम अपने मानसिक चिकित्सालयों में जायें और मानसिक चिकित्सकों से पूछें तो पता चलेगा कि वह भीतर इकट्ठी हुई हिंसा जब जोर से एक्सप्लोड हो जाती है, जब उसका विस्फोट होता है, तो मन के सारे तंतु बिखर जाते हैं और आदमी विक्षिप्त और रुग्ण हो जाता है।

ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो मानसिक रूप से बीमार न हो। मानसिक रूप से जिन्हें हम नार्मल कहते हैं, स्वस्थ कहते हैं, उसका केवल मतलब इतना ही है–उसका मतलब स्वास्थ्य नहीं है–उसका इतना ही मतलब है कि वह नार्मल पागलपन है। उसका कुल मतलब इतना है कि उतने पागल बाकी लोग भी हैं। वह एवरेज पागलपन है। जिसको हम पागल कहते हैं, वह एबनार्मल है। वह जरा एवरेज से आगे चला गया है। उसने जरा छलांग लगा ली है। शायद हम नब्बे डिग्री पर उबलते हुए पागल हैं, और जिन्हें हम पागल कहते हैं, वे सौ डिग्री पर भाप बन गए पागल हैं। हमारे उनके बीच गुण का कोई अंतर नहीं है, मात्रा का ही भेद है।

पागलखानों में और पागलखानों के बाहर जो लोग हैं, उनके बीच कदमों का ही फासला है। बड़ी दीवालें हम कितनी ही उठायें पागलखानों के चारों तरफ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हमारे और पागलों के बीच बहुत ही थोड़े से कदमों का फासला है। और वह फासला भी ऐसा नहीं है, जिसकी तरफ हमारी पीठ हो। वह फासला ऐसा है, जिसकी तरफ हमारा मुंह है। और वह फासला भी ऐसा नहीं है कि हम खड़े हों। वह फासला भी ऐसा है कि हम प्रतिपल उसकी तरफ बढ़ रहे हैं और फासले को कम कर रहे हैं।

जो मनुष्य के मन को देखने में समर्थ हैं, वे कहते हैं कि शायद पूरी मनुष्यता धीरे-धीरे एक पागलखाना होती जा रही है। जिन्हें हम शरीर के रोग कहते हैं, वे भी नब्बे प्रतिशत से ज्यादा मन के रोगों से निर्मित होते हैं और शरीर तक फैलते हैं। और मन का बुनियादी रोग हिंसा है।

ज्यों की त्यों रख दिनी चदरिया

ओशो 

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