हिंसा का क्या मतलब है, वह मैं खयाल दे दूं, तो यह रोग खयाल में आ जाये।
हिंसा का मतलब है ऐसा चित्त, जो लड़ने को आतुर है; ऐसा चित्त, जिसका रस
लड़ने में है; ऐसा चित्त, जो बिना लड़े बेचैन हो जाएगा; ऐसा चित्त, जो बिना
किसी को चोट पहुंचाए, बिना किसी को दुख पहुंचाए सुख अनुभव न कर सकेगा।
स्वभावतः जो चित्त दूसरे को दुख पहुंचाने को आतुर है, या जिस चित्त का
दूसरे को दुख पहुंचाना ही एकमात्र सुख बन गया है, ऐसा चित्त सुखी नहीं हो
सकता। ऐसा चित्त भीतर गहरे में दुखी होगा।
एक बहुत गहरा नियम है कि हम दूसरे को वही देते हैं जो हमारे पास होता
है; अन्यथा हम दे भी नहीं सकते। जब मैं दूसरे को दुख देने को आतुर होता
हूं, तो उसका इतना ही अर्थ है कि दुख मेरे भीतर भरा है और उसे मैं किसी पर
उलीच देना चाहता हूं। जैसे, बादल जब पानी से भर जाते हैं, तो पानी को छोड़
देते हैं जमीन पर; ऐसे ही, जब हम दुख से भीतर भर जाते हैं, तो हम दूसरों पर
दुख फेंकना शुरू कर देते हैं।
जो कांटे हम दूसरों को चुभाना चाहते हैं, उन्हें पहले अपनी आत्मा में
जन्माना होता है; उन कांटों को हम लाएंगे कहां से? और जो पीड़ाएं हम दूसरों
को देना चाहते हैं, उन्हें जन्म देने की प्रसव-पीड़ा बहुत पहले स्वयं को ही
झेल लेनी पड़ती है। और जो अंधकार हम दूसरों के घरों तक पहुंचाना चाहते हैं,
वह अपने दीये को बुझाए बिना पहुंचाना असंभव है।
अगर मेरा दीया जलता हो और मैं आपके घर अंधकार पहुंचाने जाऊं, तो उलटा हो
जायेगा–मेरे साथ आपके घर में रोशनी ही पहुंचेगी, अंधकार नहीं पहुंच सकता!
जो व्यक्ति हिंसा में उत्सुक है, उसने अपने साथ भी हिंसा कर ली है–वह कर
चुका है हिंसा। इसलिए एक सूत्र और आपसे कहना चाहूंगा, और वह यह कि हिंसा
आत्महिंसा का विकास है। भीतर जब हम अपने साथ हिंसा कर रहे होते हैं, तब वही
हिंसा ओवरफ्लो होकर, बाढ़ की तरह फैलकर, किनारे तोड़कर स्वयं से दूसरे तक
पहुंच जाती है। इसलिए हिंसक कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, भीतर अस्वस्थ होगा
ही। उसके भीतर हार्मनी, सामंजस्य, संतुलन, संगीत नहीं हो सकता। उसके भीतर
विसंगीत, द्वंद्व, कान्फ्लिक्ट, संघर्ष होगा ही। वह अनिवार्यता है। जो
दूसरे के साथ हिंसा करना चाहता है, उसे अपने साथ बहुत पहले हिंसा कर ही
लेनी पड़ेगी। वह पूर्व तैयारी है।
इसलिए, हिंसा मेरे लिए अंतर्द्वंद्व है। दूसरे पर फैलकर दूसरों का दुख
बनती है और अपने भीतर जब उसका बीज अंकुरित होता है और फैलता है, तो स्वयं
के लिए द्वंद्व और अंतर-संघर्ष, और अंतर-पीड़ा बनती है। हिंसा अंतर-संघर्ष,
अंतर-असामंजस्य, अंतर- विग्रह, अंतर-कलह की स्थिति है। हिंसा दूसरे से बाद
में लड़ती है, पहले स्वयं से ही लड़ती और बढ़ती है। प्रत्येक हिंसक व्यक्ति
अपने से लड़ रहा है।
और जो अपने से लड़ रहा है, वह स्वस्थ नहीं हो सकता। स्वस्थ का अर्थ ही
है, हार्मनी। स्वस्थ का अर्थ है, जो अपने भीतर एक समस्वरता को, एकरसता को,
एक लयबद्धता को, एक रिदम को उपलब्ध हो गया है। महावीर या बुद्ध के चेहरों पर संगीत की जो छाप है, वह वीणा लिए बैठे
संगीतज्ञों के चेहरों पर भी नहीं है। वह महावीर के वीणा-रहित हाथों में है।
वह संगीत किसी वीणा से पैदा होने वाला संगीत नहीं, वह भीतर की आत्मा से
फैला हुआ समस्वरता का बाहर तक बिखर जाना है। बुद्ध के चलने में वह जो
लयबद्धता है–वह जो बुद्ध के उठने और बैठने में–वह जो बुद्ध की आंखों में एक
समस्वरता है, वह समस्वरता किन्हीं कड़ियों के बीच बंधे हुए गीत की नहीं,
किन्हीं वाद्यों पर पैदा किये गये स्वरों की नहीं–वह आत्मा के भीतर से सब
द्वंद्व के विसर्जन से उत्पन्न हुई है।
अहिंसा एक अंतर-संगीत है। और जब भीतर प्राण संगीत से भर जाते हैं, तो
जीवन स्वास्थ्य से भर जाता है; और जब भीतर प्राण विसंगीत से भर जाते हैं,
तो जीवन रुग्णता से, डिसीज से भर जाता है।
यह अंग्रेजी का शब्द “डिसीज’ बहुत महत्वपूर्ण है। वह डिस ईज़ से बना है।
जब भीतर विश्राम खो जाता है, ईज़ खो जाती है; जब भीतर सब संतुलन डगमगा जाते
हैं, और सब लयें टूट जाती हैं, और काव्य की सब कड़ियां बिखर जाती हैं, और
सितार के सब तार टूट जाते हैं, तब भीतर जो स्थिति होती है, वह डिसीज है। और
जब भीतर कोई चित्त रुग्ण हो जाता है, तो शरीर बहुत दिन तक स्वस्थ नहीं रह
सकता है। शरीर छाया की तरह प्राणों का अनुगमन करता है।
इसलिए मैंने कहा कि हिंसा एक रोग है, एक डिसीज है; और अहिंसा रोगमुक्ति है, और अहिंसा स्वास्थ्य है।
जैसे मैंने कहा, अंग्रेजी का शब्द डिसीज महत्वपूर्ण है, वैसा हिंदी का
शब्द “स्वास्थ्य’ महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ हेल्थ नहीं होता,
जैसे डिसीज का मतलब सिर्फ बीमारी नहीं होती। स्वास्थ्य का मतलब होता है:
स्वयं में जो स्थित हो गया है। स्वयं में जो ठहर गया है। स्वयं में जो खड़ा
हो गया है। स्वयं में जो लीन हो गया है और डूब गया है। स्वयं हो गया है जो।
जो अपनी स्वयंता को उपलब्ध हो गया है। जहां अब कोई परता नहीं, कोई दूसरा
नहीं कि जिससे संघर्ष भी हो सके; कोई भिन्न स्वर नहीं, सब स्वर स्वयं बन
गए–ऐसी स्थिति का नाम “स्वास्थ्य’ है।
ज्यो कि त्यों रख दिनी चरदरिया
ओशो
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