मैं गंगा के किनारे बैठा था अपने एक मित्र के साथ। एक व्यक्ति स्नान कर
रहा था सुंदर देह, लम्बे बाल। पीछे से यूं लगता था, जैसे कोई सुंदर स्त्री
हो! वे मित्र बोले कि ‘मुझसे न रहा जायेगा। मैं देखकर आता हूं। जब देह में
ऐसा सौष्ठव है, कोन जाने चेहरा भी सुंदर हो।’
मैंने कहा, ‘जाओ, जरूर देख आओ।’
वे गये। वहां से बिलकुल सिर पीटते लौटे। कहा, ‘हद्द हो गई, एक साधु महाराज नहा रहे हैं।’उनके बड़े घुंघराले बाल थे। बाल पीछे उनके लटक रहे थे। और देह भी उनकी सुंदर थी। जब ये उनको देखकर लौटे चेहरा, तब पता चला। अगर बैठे ही रहते, मुझसे उन्होंने ईमानदारी से न कहा होता, तो उस रात करवटें बदलते। विचार करते रहते। सपने में उतरते।’ और वह स्त्री कोन थी!’ और वहां कोई स्त्री थी ही नहीं। आंख बंद कर लोगे तो रूप नष्ट नहीं होता और प्रगाढ़ हो जाता है। क्योंकि कल्पना को अवसर मिल जाता है। इसलिए स्त्रियां अपने को छिपाने की कला में निष्णात हो जाती हैं।
भारत में जितने धक्के लगते हैं स्त्रियों को, दुनिया में कहीं नहीं लगते। धार्मिक देश है! पुण्य भूमि है! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! वे भी इसलिए तरसते होंगे! कि थक गये उर्वशी और मेनका से। हेमा मालिनी को धक्का देना चाहते हैं। खबरें तो पहुंचती होंगी! कोई देवता भी ऐसा थोड़े ही कि अखबार न पढ़ते होंगे! थोड़ी देर से पहुंचते होंगे अखबार, पहुंचते तो होंगे ही। पढ़ पढ़कर उनके भी जी पर सांप लोट जाता होगा।
आंख बंद करने से नहीं कुछ होनेवाला है।
सूरदास ऐसी छूता नहीं कर सकते। लेकिन कहानी यही कहती है, और इसलिए कि सूरदास का सम्मान करती है। कि अद्भुत व्यक्ति थे, कि आंख फोड़ ली उन्होंने! इतने मूढ़ नहीं हो सकते। ऐसी मूढ़ता से ऐसे सुंदर पदों का जन्म नहीं हो सकता। ऐसे रसपूर्ण पद हैं कि रस का अनुभव हुआ ही होगा। नहीं तो यह रस कैसे बहेगा! यह रस कहीं न कहीं से आ रहा है। यह अंधे से नहीं आ सकता। यह तो बहुत संवेदनशील व्यक्ति से आ सकता है। और उन्होंने जैसा वर्णन किया है कृष्ण के सौंदर्य का, उससे प्रतीत होता है कि उनके सौंदर्य का बोध बडा प्रगाढ रहा होगा।
तुम्हारे धर्मों ने तुम्हारी इंद्रियों को मारने की कला सिखायी है। जिह्वा को मार डालो!
महात्मा गांधी अपने भोजन के साथ नीम की चटनी भी खाते थे। अब नीम की कोई चटनी होती है! तुमने कभी सुनी? मगर महात्मा जो न करें, सो थोडा! ऐसी ही चीजों से तो वे महात्मा होते हैं। पश्चिम का एक विचारक लुई फिशर महात्मा गांधी पर एक किताब लिख रहा था, तो वह उनका निकट अध्ययन करने के लिए उनके आश्रम आया। महात्मा गांधी ने उसे अपने साथ भोजन के लिए बिठाया। और सब चीजें तो उसने देखीं, साथ में जब नीम की चटनी आयी’, उसने पूछा, ‘यह क्या है?’ तो महात्मा गांधी ने कहा, ‘जरा चखकर देखो!’ उसने चखी, तो जहर थी! उसने कहा, ‘हद्द हो गई। यह कोई भोजन है!’
महात्मा गांधी ने कहा कि ‘इसे करने से धीरे धीरे स्वाद पर नियंत्रण आ जाता है। रोज रोज इसको खाने से आदमी का स्वाद पर बल थिर हो जाता है। तुम स्वाद के गुलाम हो। आदमी को होना चाहिए स्वाद का मालिक। सात दिन तुम यहां रहोगे, अभ्यास करो।’ लुई फिशर तो बहुत घबड़ाया कि सात दिन यहां मैं टिक पाऊंगा इस नीम की चटनी के कारण! उसने यह सोचकर कि पूरा भोजन खराब करने के बजाय यह बेहतर है कि इसको एक ही दफा पूरा का पूरा गोला गटककर पानी पी लूं फिर भोजन कर लूं ताकि झंझट एक ही दफे में खत्म हो जाये, नहीं तो पूरा भोजन खराब होगा!
उसने पूरा गोला गटक लिया। और महात्मा गांधी ने कहा कि ‘और लाओ। देखो कितनी पसंद पड़ी! अरे समझदार आदमी हो, तो उसको पसंद पड़ेगी ही!’ अब लुई फिशर यह भी न बोल सका कि पसंद नहीं पड़ी है। अब कैसे अपनी समझदारी को गंवाये! सो बैठा रहा मन मारे और दूसरा गोला आ गया। उसने कहा, ‘अब आखिर में निपटाऊंगा इसको। पहले पूरा भोजन निपट लूं।’
एक गोले की जगह दो गोले मिलने लगे रोज उसको! वह अगर न खाये पहला गोला, तो गांधीजी कहें, ‘अरे भूले जा रहे हो! चटनी पहले।’ फिर दूसरा गोला आ जाये! हर आश्रमवासी को नीम की चटनी अनिवार्य थी। ऐसे कहीं होगा, तो फिर कोई जाकर अस्पताल में….. जीभ कोई बड़ी भारी बात नहीं है। उसमें बहुत छोटे छोटे संवेदनशील तंतु हैं, वे जल्दी से मर जाते हैं। नीम वीम से कहां मार पाओगे! जिंदगीभर मारने में लग जायेगी। जाकर अपनी जीभ पर एसिड डलवा आओ। नहीं तो किसी प्लास्टिक सर्जन से कहना कि जरा ये छोटे छोटे तंतु हैं, इनको साफ ही कर दो; काट ही डालो! फिर तुम्हें स्वाद ही न आयेगा, न मीठा न कडुवा! तुम हो गये जितेंद्रिय! फिर हुए तुम जैन! असली जैन! जिह्वा पर विजय हो गयी!
कहां के पुराने ढांचे डरें में पड़े हुए हो; बैलगाड़ियों से सफर कर रहे हो! अस्पताल में चले जाओ, एक पांच मिनट का काम है; तुम्हारी जबान साफ कर दी जायेगी। तंतु ही बहुत थोड़े से हैं। और पूरी जीभ भी सारा अनुभव नहीं करती। जीभ पर भी तंतु बटे हुए हैं। किसी हिस्से पर कड़वे का अनुभव होता है, किसी हिस्से पर मीठे का। किसी हिस्से पर नमकीन का अलग अलग हिस्सों पर! जरा सी तो जीभ है, लेकिन उसके बड़े संवेदनशील तंतु हैं। इनको मारने से तुम सोचते हो कि भोजन पर तुम्हारी विजय हो जायेगी! तो जीभ ही काट डालो! काटनेवाले लोग हुए हैं, जिन्होंने जीभ काट ली। वे योगी समझे गये!
कान फोड़ लो, क्योंकि संगीत है, कोयल की पुकार है। और ये सब खतरनाक चीजें हैं। कोयल की पुकार तुम क्या सोचते हो, कोयल कोई भजन कर रही है! और हिंदी में भ्रांति होती है। क्योंकि हिंदी में ‘कोयल’ से ऐसा लगता है मादा पुकार रही है। मादा नहीं पुकारती। मादाएं तो सारी दुनियाभर की, चाहे किसी पशु पक्षी की हों, आदमी की हों, जानवरों की हों, बहुत होशियार हैं। पुकार वगैरह नहीं देतीं! ‘कोयला’ कोयल नहीं! यह कोयला पुकार रहा है। ये सज्जन पुकार रहे हैं! कोयल तो चुपचाप बैठी रहती है। ये ही पुकार मचाये रखते हैं; ये ही गुहारे मचाये रखते हैं। वह जो पपीहा पुकार रहा है, वह भी पुरुष है। वह जो ‘पी कहां…… कह रहा है. कहना चाहिए ’प्यारी कहां!’ मूरख है; भाषा का ज्ञान नहीं। अंट शंट बोल रहा है।
मगर तुम सुन लेते हो। तुम्हें पता नहीं कि यह सब पुकार तो मची हुई है वही महात्माओं के खिलाफ! यह प्रकृति रस बह रहा है। तुम कान फोड़ लो अपने!
जो बोले तो हरिकथा
ओशो
मैंने कहा, ‘जाओ, जरूर देख आओ।’
वे गये। वहां से बिलकुल सिर पीटते लौटे। कहा, ‘हद्द हो गई, एक साधु महाराज नहा रहे हैं।’उनके बड़े घुंघराले बाल थे। बाल पीछे उनके लटक रहे थे। और देह भी उनकी सुंदर थी। जब ये उनको देखकर लौटे चेहरा, तब पता चला। अगर बैठे ही रहते, मुझसे उन्होंने ईमानदारी से न कहा होता, तो उस रात करवटें बदलते। विचार करते रहते। सपने में उतरते।’ और वह स्त्री कोन थी!’ और वहां कोई स्त्री थी ही नहीं। आंख बंद कर लोगे तो रूप नष्ट नहीं होता और प्रगाढ़ हो जाता है। क्योंकि कल्पना को अवसर मिल जाता है। इसलिए स्त्रियां अपने को छिपाने की कला में निष्णात हो जाती हैं।
भारत में जितने धक्के लगते हैं स्त्रियों को, दुनिया में कहीं नहीं लगते। धार्मिक देश है! पुण्य भूमि है! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! वे भी इसलिए तरसते होंगे! कि थक गये उर्वशी और मेनका से। हेमा मालिनी को धक्का देना चाहते हैं। खबरें तो पहुंचती होंगी! कोई देवता भी ऐसा थोड़े ही कि अखबार न पढ़ते होंगे! थोड़ी देर से पहुंचते होंगे अखबार, पहुंचते तो होंगे ही। पढ़ पढ़कर उनके भी जी पर सांप लोट जाता होगा।
आंख बंद करने से नहीं कुछ होनेवाला है।
सूरदास ऐसी छूता नहीं कर सकते। लेकिन कहानी यही कहती है, और इसलिए कि सूरदास का सम्मान करती है। कि अद्भुत व्यक्ति थे, कि आंख फोड़ ली उन्होंने! इतने मूढ़ नहीं हो सकते। ऐसी मूढ़ता से ऐसे सुंदर पदों का जन्म नहीं हो सकता। ऐसे रसपूर्ण पद हैं कि रस का अनुभव हुआ ही होगा। नहीं तो यह रस कैसे बहेगा! यह रस कहीं न कहीं से आ रहा है। यह अंधे से नहीं आ सकता। यह तो बहुत संवेदनशील व्यक्ति से आ सकता है। और उन्होंने जैसा वर्णन किया है कृष्ण के सौंदर्य का, उससे प्रतीत होता है कि उनके सौंदर्य का बोध बडा प्रगाढ रहा होगा।
तुम्हारे धर्मों ने तुम्हारी इंद्रियों को मारने की कला सिखायी है। जिह्वा को मार डालो!
महात्मा गांधी अपने भोजन के साथ नीम की चटनी भी खाते थे। अब नीम की कोई चटनी होती है! तुमने कभी सुनी? मगर महात्मा जो न करें, सो थोडा! ऐसी ही चीजों से तो वे महात्मा होते हैं। पश्चिम का एक विचारक लुई फिशर महात्मा गांधी पर एक किताब लिख रहा था, तो वह उनका निकट अध्ययन करने के लिए उनके आश्रम आया। महात्मा गांधी ने उसे अपने साथ भोजन के लिए बिठाया। और सब चीजें तो उसने देखीं, साथ में जब नीम की चटनी आयी’, उसने पूछा, ‘यह क्या है?’ तो महात्मा गांधी ने कहा, ‘जरा चखकर देखो!’ उसने चखी, तो जहर थी! उसने कहा, ‘हद्द हो गई। यह कोई भोजन है!’
महात्मा गांधी ने कहा कि ‘इसे करने से धीरे धीरे स्वाद पर नियंत्रण आ जाता है। रोज रोज इसको खाने से आदमी का स्वाद पर बल थिर हो जाता है। तुम स्वाद के गुलाम हो। आदमी को होना चाहिए स्वाद का मालिक। सात दिन तुम यहां रहोगे, अभ्यास करो।’ लुई फिशर तो बहुत घबड़ाया कि सात दिन यहां मैं टिक पाऊंगा इस नीम की चटनी के कारण! उसने यह सोचकर कि पूरा भोजन खराब करने के बजाय यह बेहतर है कि इसको एक ही दफा पूरा का पूरा गोला गटककर पानी पी लूं फिर भोजन कर लूं ताकि झंझट एक ही दफे में खत्म हो जाये, नहीं तो पूरा भोजन खराब होगा!
उसने पूरा गोला गटक लिया। और महात्मा गांधी ने कहा कि ‘और लाओ। देखो कितनी पसंद पड़ी! अरे समझदार आदमी हो, तो उसको पसंद पड़ेगी ही!’ अब लुई फिशर यह भी न बोल सका कि पसंद नहीं पड़ी है। अब कैसे अपनी समझदारी को गंवाये! सो बैठा रहा मन मारे और दूसरा गोला आ गया। उसने कहा, ‘अब आखिर में निपटाऊंगा इसको। पहले पूरा भोजन निपट लूं।’
एक गोले की जगह दो गोले मिलने लगे रोज उसको! वह अगर न खाये पहला गोला, तो गांधीजी कहें, ‘अरे भूले जा रहे हो! चटनी पहले।’ फिर दूसरा गोला आ जाये! हर आश्रमवासी को नीम की चटनी अनिवार्य थी। ऐसे कहीं होगा, तो फिर कोई जाकर अस्पताल में….. जीभ कोई बड़ी भारी बात नहीं है। उसमें बहुत छोटे छोटे संवेदनशील तंतु हैं, वे जल्दी से मर जाते हैं। नीम वीम से कहां मार पाओगे! जिंदगीभर मारने में लग जायेगी। जाकर अपनी जीभ पर एसिड डलवा आओ। नहीं तो किसी प्लास्टिक सर्जन से कहना कि जरा ये छोटे छोटे तंतु हैं, इनको साफ ही कर दो; काट ही डालो! फिर तुम्हें स्वाद ही न आयेगा, न मीठा न कडुवा! तुम हो गये जितेंद्रिय! फिर हुए तुम जैन! असली जैन! जिह्वा पर विजय हो गयी!
कहां के पुराने ढांचे डरें में पड़े हुए हो; बैलगाड़ियों से सफर कर रहे हो! अस्पताल में चले जाओ, एक पांच मिनट का काम है; तुम्हारी जबान साफ कर दी जायेगी। तंतु ही बहुत थोड़े से हैं। और पूरी जीभ भी सारा अनुभव नहीं करती। जीभ पर भी तंतु बटे हुए हैं। किसी हिस्से पर कड़वे का अनुभव होता है, किसी हिस्से पर मीठे का। किसी हिस्से पर नमकीन का अलग अलग हिस्सों पर! जरा सी तो जीभ है, लेकिन उसके बड़े संवेदनशील तंतु हैं। इनको मारने से तुम सोचते हो कि भोजन पर तुम्हारी विजय हो जायेगी! तो जीभ ही काट डालो! काटनेवाले लोग हुए हैं, जिन्होंने जीभ काट ली। वे योगी समझे गये!
कान फोड़ लो, क्योंकि संगीत है, कोयल की पुकार है। और ये सब खतरनाक चीजें हैं। कोयल की पुकार तुम क्या सोचते हो, कोयल कोई भजन कर रही है! और हिंदी में भ्रांति होती है। क्योंकि हिंदी में ‘कोयल’ से ऐसा लगता है मादा पुकार रही है। मादा नहीं पुकारती। मादाएं तो सारी दुनियाभर की, चाहे किसी पशु पक्षी की हों, आदमी की हों, जानवरों की हों, बहुत होशियार हैं। पुकार वगैरह नहीं देतीं! ‘कोयला’ कोयल नहीं! यह कोयला पुकार रहा है। ये सज्जन पुकार रहे हैं! कोयल तो चुपचाप बैठी रहती है। ये ही पुकार मचाये रखते हैं; ये ही गुहारे मचाये रखते हैं। वह जो पपीहा पुकार रहा है, वह भी पुरुष है। वह जो ‘पी कहां…… कह रहा है. कहना चाहिए ’प्यारी कहां!’ मूरख है; भाषा का ज्ञान नहीं। अंट शंट बोल रहा है।
मगर तुम सुन लेते हो। तुम्हें पता नहीं कि यह सब पुकार तो मची हुई है वही महात्माओं के खिलाफ! यह प्रकृति रस बह रहा है। तुम कान फोड़ लो अपने!
जो बोले तो हरिकथा
ओशो
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