इसमें
दोत्तीन
बातें खयाल
लेनी चाहिए।
पहली
तो बात यह कि
कृष्ण कहते
हैं कि हिंसा
एक असत्य है, जो हो नहीं
सकती। भ्रम है,
जो संभव
नहीं है। कोई
मारा नहीं जा
सकता। "न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे'।
शरीर को मार
डालने से वह
नहीं मरता जो
पीछे है; और
शरीर मरा ही
हुआ है। इसलिए
शरीर मरता है,
यह कहना
व्यर्थ है।
कृष्ण
पहले तो यह
कहते हैं कि
हिंसा असंभव
है। क्या यह
मतलब है कि
कोई भी जाए और
किसी की हिंसा
करे? नहीं, कृष्ण
यह कहते हैं
कि हिंसा तो
असंभव है, लेकिन
हिंसक-वृत्ति
संभव है। तुम
किसी को मारना
चाहो, यह
संभव है; कोई
नहीं मरेगा, यह दूसरी
बात है।
तुम्हारे
मारने से कोई
नहीं मरेगा, यह दूसरी
बात है। तुम
मारना चाहते
हो, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। तुम
मारना चाहते
हो, इसमें
पाप है; उसके
मरने का तो
कोई सवाल नहीं
है, वह तो
मरेगा नहीं।
हिंसा में पाप
नहीं है, हिंसकता
में पाप है।
तुमने तो
मारना ही चाहा,
वह नहीं मरा
यह दूसरी बात
है। तुम्हारी
चाह तो मारने
की है। कोई
नहीं बचेगा, इसमें पुण्य
नहीं है; कि
कोई बचेगा, इसमें पुण्य
नहीं है।
तुमने बचाना
चाहा, इसमें
पुण्य है। एक
आदमी मर रहा
है, सब
जानते हुए कि
मरेगा, तुम
बचाने की
कोशिश में लगे
हो। यह
तुम्हारी बचाने
की कोशिश से
वह बचेगा नहीं,
मर जाएगा कल,
लेकिन
तुम्हारी
बचाने की
कोशिश में
पुण्य है। पाप
दूसरे को नुकसान
पहुंचाने की
वृत्ति है, पुण्य दूसरे
को लाभ
पहुंचाने की
वृत्ति है।
और
कृष्ण तीसरी
जो बात कहते
हैं, वे कहते
हैं कि अगर तू
पाप और पुण्य,
अगर तू सुख
और दुख, दोनों
के पार उठ जा, तो फिर न पाप
है, फिर न
पुण्य है। फिर
कुछ भी नहीं
है। फिर न हिंसा
है, न
अहिंसा है, अगर तू इन
दोनों के ऊपर
उठ जाए और जान
ले कि उस तरफ
हिंसा नहीं
होती, तो
मैं नाहक
हिंसा करने के
खयाल से क्यों
भरूं? और
उस तरफ कोई
बचता नहीं, तो मैं नाहक
बचाने के
पागलपन में
क्यों पड़ूं?
अगर तू सत्य
को देखकर अपनी
वृत्तियों को
भी समझ ले कि
ये वृत्तियां
व्यर्थ
हैं--असंभव
हैं--अगर तू इन
दोनों बातों
को ठीक से समझ
ले, तो तू
स्वर्ग को
उपलब्ध हो ही
गया। हो जाएगा
ऐसा नहीं, हो
ही गया।
क्योंकि हो
जाने का क्या
सवाल है? ऐसी
स्थिति में, जहां सुख और
दुख, लाभ
और हानि, जय
और पराजय, हिंसा
और अहिंसा, सब समान हो
गई हैं, समत्व उपलब्ध हुआ,
ऐसी स्थिति
में स्वर्ग
मिल ही गया।
अब कुछ स्वर्ग
बचा नहीं पाने
को । ऐसी
स्थिति में, ऐसी समत्व
बुद्धि को ही
कृष्ण योग
कहते हैं।
वह
कहते यह हैं
कि दो तरह की
भ्रांति है।
एक भ्रांति तो
यह कि कोई
मरेगा। और एक
भ्रांति यह कि
मैं मारूंगा।
एक भ्रांति यह
कि कोई बचेगा
और एक भ्रांति
यह कि मैं बचाऊंगा।
ये दोनों ही
भ्रांतियां
हैं। अगर पहली
भ्रांति छूट
जाए, कि कोई
मरता नहीं, कोई बचता
नहीं, जो
है वह है, अगर
यह पहली
भ्रांति छूट
जाए, तो
फिर एक दूसरी
भ्रांति बचती
है कि कोई
नहीं मरता तो
भी मैं मारने
की कोशिश करता
हूं तो पाप
है। कोई नहीं
बचता तो भी
मैं बचाने की
कोशिश करता
हूं, तो
पुण्य है।
लेकिन पाप और
पुण्य भी
अधूरा अज्ञान
है। आधा। आधा
अज्ञान बच
गया। अगर यह
भी पता चल जाए
कि न मैं किसी
को बचाता, न
कोई बचता; न
मैं किसी को
मारता, न
कोई मरता; अगर
यह पूरा ही
चला जाए, तो
ज्ञान है। फिर
ऐसे ज्ञान
वाले व्यक्ति
को जो हो रहा
है, वह
होने देता है।
बाहर, भीतर,
कहीं भी जो
हो रहा है वह
होने देता है।
क्योंकि अब न
होने देने का
कोई सवाल
नहीं। तब वह
"टोटल एक्सेप्टिबिलिटी'
को, समग्र
स्वीकार को
उपलब्ध हो
जाता है।
तो
कृष्ण अर्जुन
से यही कहते
हैं कि तू सब
देख और
स्वीकार कर और
जो होता है, होने दे; तू
धारा के खिलाफ
लड़ मत, तू
बह। और फिर तू
स्वर्ग को
उपलब्ध हो
जाता है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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