पहली
बात तो यह
खयाल लेनी
चाहिए कि आज
कृष्ण का होना
कठिन हो गया है, ऐसा नहीं
है। उस दिन भी
आसान नहीं था।
अन्यथा बहुत
कृष्ण हो
जाते। और आपको
कठिन मालूम
होता है कृष्ण
होना। उस दिन
भी इतना कठिन
मालूम होता--आपको।
कृष्ण आज पैदा
हों तो आज भी
उतना ही सरल
होगा--कृष्ण
को। लेकिन यह
भ्रांति वहां
से शुरू होती
है जहां से हम
अनुकरण का
खयाल लेते हैं,
वहां से
उपद्रव शुरू
होता है। न तो
आप उस दिन कृष्ण
का अनुकरण कर
सकते थे, न
आज कर सकते
हैं। कर ही
नहीं सकते
हैं। और करेंगे
तो ठीक कहते
हैं कि मुसीबत
में पड़ेंगे।
जो
सारी उनके
जीवन पर चर्चा
हुई है, वह
इसलिए नहीं कि
आप अनुकरण
करेंगे, बल्कि
इसलिए ही कि
इस कृष्ण के
व्यक्तित्व
के अगर पूरे
जीवन को हम
समझ पाएं, तो
शायद
अपने-अपने
जीवन को समझने
के लिए सुविधा
हो। अनुकरण के
लिए नहीं। अगर
कृष्ण के
व्यक्तित्व
का--जो कि बड़ा
विराट, बहु-आयामी
है--पूरा खुलाव
हो जाए, तो
हम अपने
व्यक्तित्व
को भी खोलने
की कुंजी पा
सकते हैं।
लेकिन अगर आप
अनुकरण की
भाषा में सोचेंगे,
तो आप कृष्ण
को नहीं समझ
पाएंगे, समझना
मुश्किल हो
जाएगा। जिसका
भी हम अनुकरण करना
चाहते हैं, उसे हम
समझना तो
चाहते ही
नहीं। और
अनुकरण करना
ही हम इसलिए
चाहते हैं कि
हम अपने को भी
समझना नहीं
चाहते। किसी
को अपने ऊपर
आरोपित करके
जी लेंगे तो
सुविधा होगी,
समझने की
झंझट से बच
जाएंगे।
समझने का काम
तो वहीं से
शुरू होता है
जहां से हम न
किसी का अनुकरण
करना चाहते
हैं, न
किसी जैसे
होना चाहते
हैं, बल्कि
इस बात का पता
लगाना चाहते
हैं कि मैं
क्या हूं, और
क्या हो सकता
हूं। तो जिन
लोगों ने अपनी
जिंदगी में
पूरी तरह खुलाव
से अपने को
प्रगट कर किया
है, उनकी
जिंदगी को
समझने से अपनी
जिंदगी को
समझने का
रास्ता सुगम
हो जाता है।
इससे
जिंदगियां एक
नहीं हो
जाएंगी, जिंदगी
तो अलग-अलग ही
होंगी, अलग-अलग
होनी ही चाहिए,
कोई होने का
उपाय भी नहीं
है कि वह एक
जैसी हो जाएं।
तो अगर
इतनी सारी
चर्चाओं में
कहीं भूलकर भी
आपके मन में
अनुकरण का
खयाल रहा है, जैसा कि
प्रश्न से
लगता है कि
रहा होगा, तो
आप कृष्ण को
नहीं समझ
पाएंगे; और
कृष्ण को तो
समझ ही नहीं
पाएंगे, अपने
को भी समझना
मुश्किल हो
जाता है।
दूसरी
बात, कृष्ण के
विचार, उनके
वे सत्य, जो
सदा उपयोग के
लिए हो सकते
हैं; लेकिन
उनमें भी मैं
आपसे यही कहना
चाहूंगा कि वे
भी अनुकरणीय
नहीं हैं।
क्योंकि जब
कृष्ण का
जीवंत
व्यक्तित्व
अनुकरण नहीं
किया जा सकता,
तो शब्दों
में प्रगट
सिद्धांत और
सत्य कैसे
अनुकरण किए जा
सकते हैं!
नहीं, वह
भी नहीं किया
जा सकता। वह
भी समझा ही जा
सकता है। हां,
उसके समझने
की प्रक्रिया
में आपकी समझ
बढ़ती है, और
वह समझ आपके
काम आ सकती
है। सिद्धांत
काम नहीं
आएंगे, समझ
ही काम आएगी।
लेकिन हम हर
हालत में अनुकरण
हमारी मांग
होती है। या
तो हम जीवन का
अनुकरण करें,
या
सिद्धांतों
का अनुकरण
करें, लेकिन
अनुकरण हम
करेंगे ही।
तो
पहली बात आपसे
उनके
सिद्धांत के
संबंध में बात
करने के पहले
यह कह देनी
जरूरी है कि
जीवन अनुकरणीय
नहीं है, इसलिए
नहीं कि आज
मटकी नहीं फोड़ी
जा सकती, इसलिए
भी नहीं कि आज
प्रेम नहीं
किया जा सकता,
इसलिए भी
नहीं कि आज
बांसुरी नहीं बजाई जा
सकती, सब
किया जा सकता
है, इसमें
कोई कठिनाई
नहीं है। मटकी
फोड?ने से
उस दिन भी
तकलीफ आती थी,
आज भी आएगी।
बांसुरी
बजाने से उस
दिन भी आदमी मुश्किल
में पड़ता था, आज भी पड़ेगा।
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता है।
थोड़े-बहुत भेद
होंगे, कोई
बहुत
बुनियादी
फर्क नहीं
पड़ता है।
इसलिए नहीं कह
रहा हूं कि
अनुकरण नहीं
किया जा सकता क्योंकि
बहुत
बुनियादी
फर्क नहीं
पड़ता है। इसलिए
नहीं कह रहा
हूं कि अनुकरण
नहीं किया जा सकता
क्योंकि
परिस्थिति
बदल गई है, अनुकरण
ही गलत
है--परिस्थिति
बिलकुल वही हो
तो भी। अनुकरण
मात्र
आत्मघात है। "सूसाइडल' है। अपने को
मारना हो, तो
ही अनुकरण ठीक
है।
कृष्ण
किसका अनुकरण
करते हैं? कोई
व्यक्तित्व
दिखाई नहीं
पड़ता कृष्ण ने
जिसका अनुकरण
किया हो।
बुद्ध किसका
अनुकरण करते
हैं? कोई व्यक्तित्व
दिखाई नहीं
पड़ता जिसका
बुद्ध ने अनुकरण
किया हो।
क्राइस्ट
किसका अनुकरण
करते हैं? कोई
दिखाई नहीं
पड़ता। बड़े मजे
की और बड़े
रहस्य की बात
है कि उन्हीं
लोगों का हम
अनुकरण करते हैं
जिन्होंने
कभी किसी का
अनुकरण नहीं
किया। यह बड़ी
"एब्सर्ड' बात
है। अगर हम उनको
समझें तो एक
बात तो हमें
यह समझ लेनी
चाहिए कि ये
लोग किसी का
अनुकरण नहीं
करते हैं। ये सारे-के-सारे
अपनी निजता के
फूल हैं। और
हम? हम
किसी और के
फूल के ढंग से
खिलना
चाहेंगे तो कठिनाई
में पड़
जाएंगे। और यह
कठिनाई मटकी फोड़ने की
कठिनाई, राधा
से प्रेम की
कठिनाई नहीं
है, यह
बहुत गहरी
कठिनाई है। वे
तो बहुत छोटी
कठिनाइयां
हैं। और उनमें
तो आप रोज
पड़ते रहते हैं,
कोई रुकता
नहीं। कोई
दूसरों की
स्त्रियों से प्रेम
करने से रुकता
हो, ऐसा
दिखाई नहीं
पड़ता। कोई
अपनी
पत्नियों से डर
का दूसरे की
पत्नियों का
नाम न लेता हो,
ऐसा भी
दिखाई नहीं
पड़ता। पत्नियां
डराए चली
जाती हैं, पति
डरे चले जाते
हैं; पति डराए चले
जाते हैं, पत्नियां डरी चली
जाती हैं, यह
कोई आज की बात
नहीं, वह
सदा की बात
है। असल में
जब तक पति और
पत्नी रहेंगे
तब तक डर
रहेगा।
पति-पत्नी न
हों, इसमें
भी बड़ा डर
लगता है। आदमी
जैसा है वह
चूंकि डरा हुआ
है, इसलिए
उसकी सारी
व्यवस्था में
डर व्याप्त हो
जाता है।
कृष्ण
की चर्चा मेरे
लिए इसलिए
महत्वपूर्ण नहीं
है कि आप उनका
अनुकरण करने
जाएं, इसलिए
महत्वपूर्ण
है कि ऐसा
व्यक्ति, इतना
"मल्टी-डायमेंशनल'
व्यक्ति
पृथ्वी पर कभी नहीं
हुआ। इस
बहु-आयामी
व्यक्तित्व
के अगर सारे खजाने
आपके सामने
खुल जाएं, तो
आपको अपने खजाने
खोलने का खयाल
आ सकता है। बस,
इससे
ज्यादा नहीं।
आपके खजाने
आपके होंगे, और कोई नहीं
कह सकता कि
आपके खजाने
कृष्ण से
ज्यादा गहरे
और ज्यादा
समृद्ध नहीं होंगे।
यह कोई सवाल
नहीं है।
लेकिन जो
कृष्ण के भीतर
घटित हुआ, वह
किसी और के
भीतर भी घटित
हो सकता है
इसका स्मरण ही
काफी है। उस
स्मरण के लिए
ही सारी चर्चा
है।
कृष्ण स्मृति
ओशो
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