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Saturday, September 5, 2015

"भगवान श्री, कृष्ण ने गीता के अध्याय दस में अपने घोड़ों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, गौवों में कामधेनु, सर्पों में वासुकि, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़, नदियों में गंगा, ऋतुओं में वसंत आदि बताया है। अर्थात अपने को सर्वश्रेष्ठ बताने का प्रयत्न किया है। तो क्या वे निकृष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते? क्या निकृष्ट वर्ग कृष्ण का रूप नहीं था? उन्होंने निकृष्ट और साधारण का जिक्र क्यों नहीं किया?'


ह बड़ा मजेदार सूत्र है। इस सूत्र में दो बातें हैं।
पहली बात तो यह है कि कृष्ण इसमें अपने को सभी में श्रेष्ठ घोषित करते हैं--ऋतुओं में वसंत कहते हैं, हाथियों में ऐरावत कहते हैं, गायों में कामधेनु कहते हैं। लेकिन दूसरी मजे की बात यह भी है कि गाय और घोड़े जैसे निम्नतम प्राणियों में भी वे अपनी तुलना खोजते हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं! इधर वह हर जाति में अपने को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, लेकिन इसकी जरा भी फिक्र नहीं करते कि जाति किसकी है। आखिर ऐरावत भी होंगे तो हाथियों में ही होंगे न, और कामधेनु होंगे तो गायों में ही होंगे न, और वसंत होंगे तो ऋतुओं में ही होंगे न!
 
ये दो बातें एकसाथ हैं। निम्नतम में भी जो श्रेष्ठतम है, उसकी वे घोषणा करते हैं। कारण हैं। इस श्रेष्ठतम की घोषणा क्यों की जा रही है? ऊपर से देखने पर लगेगा कि अहंकार की बात है--क्योंकि हमें सिवाय अहंकार के कुछ और लगता ही नहीं। भीतर से देखने पर पता चलेगा कि जब प्रत्येक जाति में, प्रत्येक वर्ग में श्रेष्ठतम की बात कही जा रही है, तो उसका कुल मतलब ही इतना है कि जब वह कहते हैं हाथियों में ऐरावत हैं, तो वह यह कहते हैं कि जो हाथी ऐरावत नहीं हो पाए, वे अपने स्वभाव से च्युत रह गए हैं। ऐसे तो हर हाथी ऐरावत होने को पैदा हुआ है। जो ऋतु वसंत नहीं हो पाई, वह ऋतु होने से च्युत हो गई, उसके स्वभाव से च्युत हो गई। ऐसे तो हर ऋतु वसंत होने को पैदा हुई है। जो गाय कामधेनु नहीं हो पाई, वह असल में ठीक अर्थों में गाय ही नहीं हो पाई है, वह अपने स्वभाव से च्युत हो गई है। कृष्ण इस घोषणा में सिर्फ इतना ही कहते हैं कि मैं प्रत्येक स्वभाव की सिद्धि हूं। जो जो हो सकता है चरम शिखर पर, वह मैं हूं। इसका मतलब आप समझे?
 
इसका मतलब यह हुआ कि जो हाथी ऐरावत नहीं है वह कृष्ण नहीं है, ऐसा नहीं, वह भी कृष्ण है, लेकिन पिछड़ा हुआ कृष्ण है; वह ऐरावत नहीं हो पाया, जो कि हो सकता है, जो कि वह "पोंटेंशियली' है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि सबके भीतर जो "पोंटेंशियली' है, वह मैं हूं। इसको अगर पूरे सार में हम रखें, तो इसका मतलब हुआ कि सबके भीतर जो बीजरूप संभावना है, जो अंतिम उत्कर्ष की संभावना है, जो अंतिम विकास का शिखर है, वह मैं हूं। और जो इससे जरा भी पीछे छूट जाता है, वह अपने स्वभाव के शिखर से च्युत हो जाता है। वह अपने को पाने से वंचित रह गया है। इसमें कहीं कोई--कहीं भूलकर भी कोई अहंकार की घोषणा नहीं है। इसका सीधा और साफ मतलब इतना ही है कि तुम जब तक हाथियों में ऐरावत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम जब तक ऋतुओं में वसंत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम अपने पूरे खिलने में, अपनी पूरी "फ्लावरिंग' में ही मुझे पाते हो। वह अर्जुन को यही समझा रहे हैं, वह उसको यही कह रहे हैं कि क्षत्रियों में तू पूरा श्रेष्ठ हो जा तो तू कृष्ण हो जाएगा।
 
अगर कृष्ण कभी हजार-दो हजार साल बाद आते, तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। मगर हजार-दो हजार साल बाद। तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। जब कृष्ण अपने होने की यह घोषणा कर रहे हैं, तो यह श्रेष्ठता का दावा नहीं है। क्योंकि श्रेष्ठता का दावा करने के लिए घोड़ों और हाथियों में जाना पड़ेगा? गायों-बैलों में जाना पड़ेगा? श्रेष्ठता का दावा तो सीधा ही हो सकता है, पर वह सीधा नहीं कर रहे हैं। असल में वह श्रेष्ठता का दावा ही नहीं कर रहे हैं। वह एक जागतिक विकास की बात कर रहे हैं कि जब तुम अपने श्रेष्ठतम रूप में प्रकट होते हो, तब तुम प्रभु हो जाते हो।
 
कृष्ण स्मृति 
 
ओशो 
 

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