भोजन करो तो ऐसे ही करो जैसे भगवान को ही भोग लगा रहे हो। भोजन तो तुम
ही कर रहे हो लेकिन अंततः तो भगवान को ही लग रहा है भोग। वही तो तुम्हारे
भीतर आकर भूख बना। उसी ने तो तुम्हारी भूख जगाई। वही तो तुम्हारे भीतर भूखा
है। उसके लिए ही तो तुम भोजन दे रहे हो। रस जगाओ। एकाग्रता की बात मत
उठाओ। रस का सहज परिणाम एकाग्रता है। जो करते हो उसे रसपूर्ण ढंग से करो।
उसमें डुबकी लो। छोटे और बड़े काम नहीं हैं दुनिया में। जिस काम में तुम
डुबकी ले लो, वही बड़ा हो जाता है। बुहारी लगाने में डूब जाओ, वही बड़ा हो
जाता है।
कबीर कहते हैं: “खाऊं-पिऊं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।’ मेरा उठना
बैठना ही उस परमात्मा की परिक्रमा है। और जो मैं खाता-पीता हूं, यही उसकी
सेवा है। रस!
मेरे देखे अधिक लोगों के जीवन का कष्ट यही है कि वे जीवन में कहीं भी रस
नहीं ले रहे हैं। जो भी कर रहे हैं, बेमन से कर रहे हैं। कर रहे हैं
क्योंकि करना है। खींच रहे हैं। जैसे बैलगाड़ी में जुते बैल; ऐसा जीवन को
खींच रहे हैं। नाचते हुए, उमंग से भरे हुए नहीं।
अगर तुम कोई ऐसे काम में लगे हो, जिसमें तुम रस ले ही नहीं सकते तो बदलो
वह काम। कोई काम जीवन से ज्यादा मूल्यवान नहीं है। अक्सर ऐसा हुआ है, हो
रहा है कि लोग ऐसे काम में उलझे हैं जो उनमें रस नहीं जगाता। किसी को कवि
होना था, वह जूते बेच रहा है, बाटा की दुकान पर बैठा है। और जिसको बाटा की
दुकान पर बैठना था, वह कविता कर रहा है। तो उसकी कविता में जूते की पालिश
की गंध आती। आएगी ही।
लोग वहां हैं, जहां उन्हें नहीं होना था। और यह विकृति के कारण है।
क्योंकि तुमने कभी अपने सहज भाव को तो खोजा नहीं। किसी के पिता ने कहा कि
दुकान करो। इसमें ज्यादा लाभ है। किसी के पिता ने कहा, डाक्टर बन जाओ। किसी
की मां को खयाल था, बेटा इंजीनियर बने। परिवार को धुन थी कि बेटा नेता
बने।
तो सब धक्का दे रहे हैं एक दूसरे को कि यह बन जाओ, वह बन जाओ। कोई यह
नहीं पूछता कि यह बेटा क्या बनने को पैदा हुआ है? इससे भी तो पूछो। थोड़े
इसके हृदय को भी तो टटोलो। तो फिर लोग गलत जगहों पर पहुंच जाते हैं।
जिन सूत्र
ओशो
No comments:
Post a Comment