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Thursday, April 14, 2016

उपासना का अर्थ

उपासना की यात्रा ही उलटी है। उपासना का मतलब ही यह है कि हमने अपने को पा लिया, यही भूल है। हम हैं, यही गलती है। “टु बी इज द ओनली बांडेज”। होना ही एकमात्र बंधन है। न होना ही एकमात्र मुक्ति है। साधक जब कहेगा तब वह कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं; उपासक जब कहेगा तो वह कहेगा, मैं “मैं’ से मुक्त होना चाहता हूं। साधक कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं। मैं मोक्ष पाना चाहता हूं। लेकिन “मैं’ मौजूद रहेगा। उपासक कहेगा, “मैं’ से मुक्त होना है। “मैं’ से मुक्ति पानी है। उपासक के मोक्ष का अर्थ है, “न-मैं’ की स्थिति। साधक के मोक्ष का मतलब है, “मैं’ की परम स्थिति। इसलिए कृष्ण की भाषा में साधना के लिए कोई जगह नहीं है; उपासना के लिए जगह है। 


अब यह उपासना क्या है, इसे हम थोड़ा समझें।


पहली तो बात समझ लें कि उपासना साधना नहीं है, इससे समझने में आसानी बनेगी। अन्यथा भ्रांति निरंतर होती रहती है। और उपासक हममें से बहुत कम लोग होना चाहेंगे, यह भी खयाल में ले लें। साधक हममें से सब होना चाहेंगे। क्योंकि साधक में कुछ खोना नहीं है, पाना है। और उपासक में सिवाय खोने के कुछ भी नहीं है, पाना कुछ भी नहीं है। खोना ही पाना है, बस। उपासक कौन होना चाहेगा? इसलिए कृष्ण को मानने वाले भी साधक हो जाते हैं। कृष्ण के मानने वाले भी साधना की भाषा बोलने लगते हैं। क्योंकि वह भीतर जो अहंकार है, वह साधना की भाषा बुलवाता है। वह कहता है, साधो, पाओ, पहुंचो।


उपासना बड़ी कठिन बात है, “आरडुअस’। इससे ज्यादा “आरडुअस’, इससे ज्यादा कठिन कोई बात ही नहीं है–पिघलो, मिटो, खो जाओ। निश्चित ही हम पूछना चाहेंगे कि क्यों मिटें? मिटकर क्या फायदा है? साधक कितनी ही ऊंची बात बोले, फायदे की बात में ही सोचेगा। उसका मोक्ष भी उसका ही सुख है। उसकी मुक्ति भी उसकी ही मुक्ति है। इसलिए साधक बहुत गहरे अर्थों में स्वार्थी हो तो आश्चर्य नहीं। स्व अर्थ से वह ऊपर कभी उठ भी नहीं पाएगा। उपासक स्व अर्थ के ऊपर उठेगा, इसलिए उपासक परमार्थ की बात बोलेगा। वह परम अर्थ की बात बोलेगा, जहां स्व खो जाता है। इस उपासना का क्या अर्थ होगा, और यह उपासना की क्या गति होगी और क्या यात्रा होगी? बड़ी कठिन होगी समझना यह बात। इसलिए पहले ही आपको कह देता हूं कि साधना शब्द को बिलकुल ही हटा दें। उसकी जगह ही नहीं है, फिर हम उपासना को समझने चलें।


जैसा मैंने कहा, उपासना का अर्थ है, निकट आना, “टु बी नियरर’। तो दूरी क्या है, “डिस्टेंस’ क्या है? एक तो दूरी है जो हमें दिखाई पड़ती है, “फिजिकल स्पेस’ है। आप वहां बैठे हैं, मैं यहां हूं, हम दोनों के बीच एक फासला है, एक “डिस्टेंस’ है। मैं आपके पास आ जाऊं, आप मेरे पास आ जाएं, भौतिक दूरी समाप्त हो जाएगी। हम बिलकुल पास-पास, हाथ में हाथ लेकर, गले में गले डालकर बैठ जाएं, दूरी खत्म हुई। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाले हुए भी कोसों दूरी पर हो सकते हैं। एक “इनर स्पेस’ है।

 एक भीतरी दूरी है, जिसका “फिजिकल’ दूरी से कुछ भी संबंध नहीं है। और दो आदमी कोसों दूर होकर भी बड़े निकट हो सकते हैं। और दो आदमी गले में हाथ डालकर दूर हो सकते हैं। तो एक तो दूरी है जो हमसे बाहर है। और एक दूरी है जो मन की है और हमारे भीतर है। उपासना भीतर की दूरी को मिटाने की विधि है। लेकिन भक्त भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। वह भी कहता है, सेज बिछा दी है, आ जाओ! वह भी कहता है, कब तक तड़पाओगे, जाओ! वह भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। 

लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि बाहर की दूरी कितनी ही मिट जाए, दूरी बनी ही रहती है हम कितने ही पास आ जाएं, बाहर से हम पास आते ही नहीं। पास आना बिलकुल ही आंतरिक घटना है। इसलिए उपासक उस परमात्मा के पास भी हो सकता है जो दिखाई ही नहीं पड़ता। जिससे “फिजिकल’ दूरी मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है, उसके पास भी पास हो सकता है।


यह जो “इनर स्पेस’ है हमारी, यह कैसे पैदा होती है? यह जो भीतर की दूरी है, यह कैसे पैदा होती है? बाहर की दूरी हम समझते हैं कि कैसे पैदा होती है। अगर मैं आपसे दूर चलने लगूं, आपसे हटने लगूं, आपकी तरफ पीठ कर लूं और भागने लगूं, तो बाहर की दूरी पैदा हो जाती है। आपकी तरह मुंह करने लगूं और आपकी तरफ चलने लगूं, आपकी दिशा में, तो बाहर की दूरी कम हो जाती है। भीतर की दूरी कैसे पैदा होती? भीतर की दूरी चलने से पैदा नहीं होती, क्योंकि भीतर तो चलने की कोई जगह नहीं है। भीतर की दूरी होने से पैदा होती है; कितना सख्त मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी होती है। और कितना तरल मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी टूट जाती है। और अगर मैं बिलकुल तरल हो जाऊं कि मैं भीतर कह सकूं कि मैं हूं ही नहीं, शून्य हो गया, तो भीतर की दूरी समाप्त हो जाती है।

कृष्ण स्मृति 

ओशो 

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