‘वासनारहित पुरुषसिंह को देख कर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं, या वे असमर्थ होकर उसकी चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।’
यह.. .यही पकड़ लेने जैसी बात है।
‘वासनारहित पुरुषसिंह को देख कर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं।’
विषयरूपी हाथी कहा अष्टावक्र ने। क्योंकि दिखाई बहुत बड़े पड़ते हैं, बड़े हैं
नहीं।
एक लोमड़ी सुबह सुबह निकली अपनी गुफा से। उगता सूरज! उसकी बड़ी छाया बनी।
लोमड़ी ने सोचा, आज तो नाश्ते में एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी। छाया देखी अपनी तो
स्वभावत: सोचा कि ऊंट से कम में काम न चलेगा। खोजती रही ऊंट को। ऊंट को
खोजते खोजते दोपहर हो गई। अब कहीं लोमडियां ऊंट को खोज सकती हैं! और खोज भी
लें तो क्या करेंगी?
दोपहर हो गई, सूरज सिर पर आ गया तो उसने सोचा, अब तो दोपहर भी हुई जा
रही है, नाश्ते का वक्त भी निकला जा रहा है। नीचे गौर से देखा, छाया सिकुड़
कर बिलकुल नीचे आ गई। तो उसने सोचा, अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो भी काम
चल जाएगा।
ये छायाएं जो तुम्हारी वासना की बन रही हैं, ये बहुत बड़ी हैं। हाथी की
तरह बड़ी हैं। और इनको तुम पूरा करने चले हो, ऊंट की तलाश कर रहे हो। एक दिन
पाओगे, समय तो ढल गया, नाश्ता भी न हुआ, ऊंट भी न मिला। तब गौर से नीचे
देखोगे तो पाओगे, छाया बिलकुल भी नहीं बन रही है।
वासना सिर्फ एक भुलावा है, एक दौड़ है। दौड़ते रहो, दौड़ाए रखती है। रुक जाओ, गौर से देखो, थम जाती है। समझ लो, विसर्जित हो जाती है।
‘वासनारहित पुरुषसिंह को देख कर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं। या वे असमर्थ होकर उसकी चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।’
यही मेरा अर्थ था, जब मैंने तुमसे कहा, अनुगत हो जाती है वासना, अनुगत
हो जाता है मन। तुम जागो तो जरा! फिर मन को कब्जा नहीं करना पड़ता, मन खुद
ही झुक जाता है। मन कहता है, हुकुम! आज्ञा! क्या कर लाऊं? आप जो कहें। मन
तुम्हारे साथ हो जाता है। मालिक आ जाए…।
देखा? बच्चे क्लास में शोरगुल कर रहे हों, उछलकूद कर रहे हों और शिक्षक आ
जाए, एकदम सन्नाटा हो जाता है, किताबें खुल जाती हैं। बच्चे किताबें पढ़ने
लगे, जैसे अभी कुछ हो ही नहीं रहा था। एक क्षण पहले जो सब शोरगुल मचा था,
सब खो गया। शिक्षक आ गया।
ऐसी ही घटना घटती है। नौकर बकवास कर रहे हों, शोरगुल मचा रहे हों और
मालिक आ जाए सब बकवास बंद हो जाती है। ऐसी ही घटना घटती है भीतर भी। अभी मन
मालिक बना बैठा है, सिंहासन पर बैठा है। क्योंकि सिहासन पर जिसको बैठना
चाहिए वह बेहोश पड़ा है। जिसका सिंहासन है उसने दावा नहीं किया है। तो अभी
नौकर चाकर सिंहासन पर बैठे हैं और उनमें बड़ी कलह मच रही है। क्योंकि
एक दूसरे को खींचतान कर रहे हैं कि मुझे बैठने दो, कि मुझे बैठने दो। मन
में हजार वासनाएं हैं। सभी वासनाएं कहती हैं, मुझे सिंहासन पर बैठने दो।
मालिक के आते ही वे सब सिंहासन छोड़ कर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं, चाटुकार
की तरह सेवा करने लगते हैं।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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