..... में जो निकले हैं वे अगर पुरुष की अकड़ से चले तो नहीं पहुंचेंगे। परमात्मा पर आक्रमण नहीं किया जा सकता और न परमात्मा को जीता जा सकता है। और पुरुष तो जीतने की भाषा में ही सोचता है। परमात्मा के समक्ष तो हारने में जीत है। वहां तो जो झुके, उठा लिए गए। वहां तो जो गिरे वे शिखर पर चढ़ गए।
तुमने कहावत सुनी है कि उसकी कृपा हो जाए तो लंगड़े भी पर्वत चढ़ जाते हैं। मैं तुमसे कहता हूं उसकी कृपा ही उन पर होती है जो लंगड़े हैं। लंगड़े ही पर्वत चढ़ते हैं। जिनको अकड़ है अपने पैरों की और अपने बल का भरोसा है, वे तो घाटियों में ही भटकते रह जाते हैं। अंधेरे की घाटियां अनंत हैं। जन्मों जन्मों तक भटक सकते हो। ईश्वर को पाना हो तो ईश्वर पुरुष है, उसकी प्रतीक्षा करना हमें सीखना होगा। प्रार्थना और पुकार, सुरति और सुमिरन; मगर प्रतीक्षा!
भक्त को स्त्री के गर्भ जैसा होना चाहिए लेने को राजी, लेने को आतुर, अपने भीतर समाविष्ट करने को उत्सुक, प्रार्थनापूर्ण। अपने भीतर नए जीवन को उतारने के लिए द्वार खुले हुए हैं। लेकिन जीवन को खोजने हम जाएं तो जाएं कहां? परमात्मा की तलाश करें तो कहां करें, किस दिशा में करें?
जाननेवाले कहते हैं, सब जगह है। न जाननेवाले कहते हैं कहां है, दिखाओ। भक्त जाए तो कहां जाए? खोजे तो कहां खोजे? एक तरफ जाननेवाले हैं, वे कहते हैं, रत्ती रत्ती में वही, कण कण में वही; वही है और कोई भी नहीं। और एक तरफ न जाननेवाले हैं, वे कहते हैं कि और सब कुछ है, परमात्मा नहीं है।
भक्त इन दोनों के बीच खड़ा है। न उसे पता है कि सब जगह है, और न ही वह ऐसे अहंकार से भरा है कि कह सके कि कहीं भी नहीं है। क्योंकि वह कहता है, मुझे पता ही नहीं, मैं कैसे कहूं कि कहीं भी नहीं है? ऐसी अस्मिता मेरी नहीं।
तो भक्त क्या करे? भक्त प्रतीक्षा करे, प्रार्थना करे, रोए गाए, नाचे, पुकारे। पुकार को ऐसा गहन करे, पुकार उसके प्राणों में ऐसी गहरी उतर जाए कि उसका रोआं रोआं पुकारे, उसकी श्वास श्वास पुकारे और अगर कहीं परमात्मा है तो आएगा, जरूर आएगा। अगर कहीं परमात्मा है तो आंसू व्यर्थ नहीं जाएंगे, पुकारें सुनी जाएंगी। और जितनी गहरी पुकार होगी उतनी त्वरा से सुनी जाएगी, शीघ्रता से सुनी जाएगी। अगर कोई पूरे प्राण से पुकार सके तो इसी क्षण घटना घट सकती है।
इसलिए जगजीवनदास "सखा' शब्द का उपयोग नहीं करते। कहते हैं, "सुनु सुनु सखि री।' ए सखि सुन! चरनकमल तें लागि रहु री।'
परमात्मा तो दिखाई नहीं पड़ता लेकिन उसके चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं। परमात्मा तो विराट है, पर उसके चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं। क्या अर्थ हुआ, चरण सब जगह दिखाई पड़ते हैं? अर्थ हुआ कि अगर झुकना हो तो कहीं भी झुक सकते हो।
एक गुलाब का फूल खिला, जिसको झुकने की कला आती है, झुक जाएगा। चमत्कार घट रहा है, मिट्टी गुलाब का फूल बन गई और तुम अंधे की तरह जा रहे हो बिना झुके, बिना नमस्कार किए?
मिट्टी गुलाब का फूल बन गई है, और बड़ा जादू होता है कहीं? साधारण सी मिट्टी में ऐसी सुवास उठी है, और किस चमत्कार की प्रतीक्षा करते हो जब तुम झुकोगे? अगर तय ही कर लिया हो न झुकने का तो बात और, अन्यथा पल पल, प्रतिकदम पर झुकने के लिए अवसर है। सूरज निकला, अब तुम किस प्रतीक्षा में खड़े हो? और परमात्मा की महिमा कैसे प्रकट होगी? उसके चरण और कहां पाओगे? और आकाश तारों से भर गया और तुम झुकोगे नहीं तो तुम कहां झुकोगे, कैसे झुकोगे?
मैं बहुत चमत्कृत हो जाता हूं यह देखकर कि लोग जाकर मंदिरों में झुक जाते है, जो आकाश को तारों से भरा देखकर नहीं झुकते। इनका मंदिर में झुकना झूठा होगा, निश्चित झूठा होगा। यह सच नहीं हो सकता। इसमें हार्दिकता नहीं हो सकती। आदमी की बनाई हुई मूर्ति में इन्हें क्या दिखाई पड़ सकता है? अगर परमात्मा की बनाई हुई मूर्तियों में इन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। इतने अंधे! ये संगमरमर की एक बनी प्रतिमा के सामने झुकते हैं, उसमें हृदय होगा? आदतवश झुक जाते होंगे। बचपन से झुकाए गए होंगे इसलिए झुक जाते होंगे मां बाप ने कहा होगा, झुको, इसलिए झुक जाते होंगे, भय के कारण झुक जाते होंगे; डर के कारण कि कहीं नरक न हो, कहीं दंड न मिले। या लोभ के कारण झुक जाते होंगे कि झुकने से स्वर्ग मिलेगा, पुरस्कार मिलेंगे। कि क्या बिगड़ता है, थोड़ी खुशामद कर ली। परमात्मा को भी राजी रखना उचित है। फिर जो करना है करते रहो लेकिन उसे भी राजी रखते रहो।
नाम सुमिर मन बावरे
ओशो
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