वैराग्य से साधारणत: लोग समझते हैं, विराग। राग है, उसके विपरीत विराग है।
राग का अर्थ है, वस्तुओं को देख कर भोगने की आकांक्षा का जगना। सौंदर्य दिखाई पड़े, स्वादिष्ट वस्तु दिखाई पड़े, सुखद परिस्थिति दिखाई पड़े, तो उसे भोग लेने का, उसमें डूबने का, लीन होने का जो मन पैदा होता है, वह है राग। राग का अर्थ है जुड़ जाने की इच्छा, अपने को खोकर किसी वस्तु में डूब जाने की इच्छा। अपने से बाहर कोई सुख दिखाई पड़े, तो अपने को सुख में डुबा देने की आकांक्षा राग है। विराग का अर्थ है, कोई वस्तु दिखाई पडे भोगने योग्य, तो उससे विकर्षण का पैदा हो जाना; उससे दूर हटने का मन पैदा हो जाना; उसकी तरफ पीठ कर लेने की इच्छा हो जाए।
आकर्षण है राग, विकर्षण है विराग: भाषा की दृष्टि से। जिसकी तरफ जाने का मन हो, वह है राग, और जिससे दूर हटने का मन हो, वह है विराग। विराग का अर्थ हुआ विपरीत राग। एक में खिंचते हैं पास, दूसरे में हटते हैं दूर। विराग राग से पूरी तरह मुक्ति नहीं है, उलटा राग है। कोई धन की तरफ पागल है, धन मिल जाए तो सोचता है सब मिल गया। कोई सोचता है धन छोड़ दूं तो सब मिल गया! लेकिन दोनों की दृष्टि धन पर है। कोई सोचता है पुरुष में सुख हैं, स्त्री में सुख है; कोई सोचता है स्त्री पुरुष के त्याग में सुख है। बाकी दोनों का केंद्र स्त्री या पुरुष का होना है। कोई सोचता है संसार ही स्वर्ग है और कोई सोचता है संसार नर्क है, लेकिन दोनों का ध्यान संसार पर है।
भाषा की दृष्टि से विराग राग का उलटा रूप है, लेकिन अध्यात्म के नेजी के लिए वैराग्य राग का उलटा रूप नहीं, राग का अभाव है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। शब्दकोश में देखेंगे तो राग का उलटा विराग है, अनुभव में उतरेंगे तो राग का उलटा विराग नहीं है, राग का अभाव, एब्सेंस, विराग है। फर्क थोड़ा बारीक है।
स्त्री के प्रति आकर्षण है, यह राग हुआ। स्त्री के प्रति विकर्षण पैदा हो जाए, कि स्त्री को पास सहना मुश्किल हो जाए, स्त्री से दूर भागने की वृत्ति पैदा हो जाए, स्त्री से दूर दूर रहने का मन होने लगे, यह हुआ विराग: भाषा, शब्द, शास्त्र के हिसाब से। अनुभव, समाधि के हिसाब से यह भी राग है।
समाधि के हिसाब से विराग तब है, जब स्त्री में न आकर्षण हो, न विकर्षण हो, न खिंचाव हो और न विपरीत। स्त्री का होना और न होना बराबर हो जाए, पुरुष का होना, न होना बराबर हो जाए। गरीबी और समृद्धि बराबर हो जाए; चुनाव न रहे, अपना कोई आग्रह न रहे कि यह मिलेगा तो स्वर्ग, यह छूटेगा तो स्वर्ग; बाहर के मिलने और छूटने से कोई संबंध ही न रह जाए सुख का, सुख अपना ही हो जाए; बाहर कोई मिले, न मिले ये दोनों बातें गौण, ये दोनों बातें व्यर्थ हो जाएं: तब वैराग्य।
अध्यात्म उपनिषद
ओशो
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