संन्यास का अर्थ जानते हो? संन्यास का अर्थ है--मेरा अर्थ--जीवन को जीने की कला। जीवन को सम्यक रूपेण जीना। लोग जीना भूल गये हैं, इसलिए हजारों लोगों को संन्यास दे रहा हूं।
लोग भूल ही गये हैं कि जीना कैसे। और जिन्होंने भुलाने में सहयोग दिया है उन्हें अब तक संन्यासी समझा जाता रहा है। इसलिए संन्यास नाम मैंने चुना, ताकि प्रायश्चित हो जाये। प्रायश्चित के निमित्त। मैं कुछ और नाम भी चुन सकता था, मैं कोई और वस्त्र भी चुन सकता था, लेकिन मैंने संन्यास ही नाम चुना और मैंने गैरिक वस्त्र ही चुने, क्योंकि गैरिक वस्त्रों पर और संन्यास पर बड़ी कालिख लग गई है। इनके कारण ही बहुत-से लोग जीवन का छंद भूल बैठे हैं, भगोड़े बन गये हैं। इसी सीढ़ी से भागे हैं, इसी सीढ़ी से वापिस लाना है। और संन्यास के नाम पर जो कालिख लगी है उसको मिटा देना है। संन्यास को अब नाचता हुआ, आनंदमग्न रूप देना है। संन्यास को एक नया संस्कार देना है, एक नई संस्कृति देनी है।
अब जिसे मैं संन्यास कह रहा हूं उसका पुराने संन्यास से कुछ भी लेना-देना नहीं है, वह उसके ठीक विपरीत है। इसलिए अगर पुराने संन्यासी मुझसे नाराज हों तो तुम आश्चर्य न करना, स्वाभाविक है। उन्होंने तो कभी सोचा ही नहीं है कि ऐसा भी संन्यास हो सकता है। संन्यास, जो संसार में पैर जमाकर खड़ा हो; संन्यास, जो घर, परिवार, प्रिजयनों के विपरीत न हो। संन्यास के नाम पर कितने घर उजड़े हैं, तुम्हें पता है? लुटेरों ने इतने घर नहीं उजाड़े, हत्यारों ने इतनी स्त्रियों को विधवा नहीं किया है, दुष्टों ने इतनी माताओं को रोता नहीं छोड़ा है--जितना संन्यासियों ने। मगर अच्छे नाम के पीछे कुछ भी चले, छिप जाता है, नाम भर अच्छा हो। तो तुम रो भी नहीं सकते। कोई संन्यासी हो गया घर-द्वार छोड़कर, अब पत्नी रो भी नहीं सकती। देखते हो, कैसी तुमने गर्दन कस दी है लोगों की! पत्नी को लोग समझायेंगे: तू धन्यभागी है, कि तुझे ऐसा पति मिला जो संन्यासी हो गया! अब यह पत्नी आटा पीसेगी, कि चक्की चलायेगी, रोती रहेगी; मगर यह अपने आंसुओं को वाणी न दे सकेगी। यह किसी से कह भी न सकेगी और पतिदेव कभी अगर नगर में आयेंगे, संन्यस्त हो गये हैं अब, तो उनके चरण छुएगी और ऊपर-ऊपर मानेगी कि धन्यभागी हूं मैं और भीतर जानेगी अभागी। इसके बच्चे अनाथ हो गए। और कौन जाने कितनी स्त्रियां वेश्याएं न हो गई होंगी और कितने बच्चे भिखमंगे न हो गए होंगे, कितने बच्चे गैर-पढ़े-लिखे न रह गए होंगे, कितने बच्चों को दवा न मिली होगी और मर न गए होंगे! कितने मां-बाप बुढ़ापे में असहाय न हो गए होंगे, उनके हाथ की लकड़ी न छूट गई होगी।
तुम जरा देखो तो, अगर संन्यास के नाम पर हुआ जो अब तक का भगोड़ापन है, हजारों साल का, उसका हिसाब लगाया जाये तो हिटलर और तैमूरलंग और चंगीज खां और नादिरशाह और महमूद गजनवी, इन सबने जो भी अत्याचार ढाये, सबके इकट्ठे भी जोड़ लो तो उनका कुल जोड़ संन्यास के द्वारा हुए अत्याचारों के मुकाबले कुछ भी नहीं है।
मगर बात अच्छी है। झंडा संन्यास का है, उसके पीछे सब छिप जाता है, सब खून छिप जाते हैं।
मैं इस सारी कहानी को नया ढंग देना चाहता हूं। संन्यास को मैं पहली बार पृथ्वी के प्रेम में संलग्न करना चाहता हूं, क्योंकि मेरे लिये पृथ्वी और परमात्मा में भेद नहीं है, अभेद है। यह एक महत क्रांति है, जो घट रही है। पृथ्वी का संगीत खो गया है, आनंद खो गया है। जीवन की रसधार छिन्न-भिन्न हो गई है। तुम्हें ऐसी बातें सिखाई गई हैं जिनके कारण तुम ठीक से जी ही नहीं सकते। तुम्हें जीवन-विरोध सिखाया गया है, जीवन-निषेध सिखाया गया है। तुम्हें आत्मघाती वृत्तियों की निरंतर उपदेशना दी गई है। तुम नाच भूल गये हो। तुम गीत भूल गये हो। वीणा पड़ी है तुम्हारे हृदय की और तुम तार नहीं छेड़ते। संन्यास एक नई झंकार को जन्म देना है।
सहजयोग
ओशो
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