अगर आज नहीं कल कम्प्यूटर ने सारा काम करना शुरू कर दिया बुद्धि का–और
वह आपसे लाख गुना ज्यादा काम कर सकता है, तो आपकी बुद्धि की क्या जरूरत
रही? इतनी जरूरत रही कि कम्प्यूटर कैसे चलाया जाए। उसकी चलाने भर की बुद्धि
काफी होगी, बाकी सब काम कम्प्यूटर कर लेगा। तो शायद आदमी पांच प्रतिशत का
भी उपयोग न करे।
और आत्मा के मामले में तो हम उपयोग करते ही नहीं, हमारी सौ प्रतिशत
आत्मा पैक्ड, बंद वापिस लौट जाती है, खुलती ही नहीं। कभी कोई एक बुद्ध
खोलता है। इससे डरने का कारण नहीं है कि हमारी क्षमता नहीं है। हमारी भी
क्षमता है, लेकिन विफल होने के लिए तैयार होना चाहिए।
जो आदमी विफलता से बहुत डरता है, वह कभी भी सफल नहीं होता। जो विफलता से
डरता है, वह कदम ही नहीं उठता कि कहीं विफल न हो जाएं। जो डरता है कि
भूल-चूक न हो जाए, भूल-चूक तो नहीं होती, लेकिन यात्रा भी नहीं होती।
विफलता की तैयारी होनी चाहिए, तो ही कोई सफल हो सकता है। इसलिए बच्चे सीख
लेते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, सीखने की पात्रता कम हो जाती है।
क्योंकि बच्चे विफलता से नहीं डरते हैं, उन्हें अभी पता नहीं कि विफलता में
और सफलता में कोई खास फर्क है, अभी वे सीख लेते हैं। जैसे-जैसे आपको पता
चलता है कि कहीं विफल न हो जाऊं, सीखना मुश्किल हो जाता है।
अगर एक बच्चे को कोई पराई जुबान सिखानी हो, दूसरे की भाषा सिखानी हो, वह
जल्दी सीख लेता है। आप नहीं सीख पाते, क्योंकि आपको सदा डर लगा रहता है कि
कहीं कोई गलती, कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए।
दस विफलताएं मिलकर सफलता बन जाती हैं, सफलता कुछ और है भी नहीं। जो आदमी
दस विफलताओं में भी साहसपूर्वक बढ़ता चला जाता है, सफलता उसे उपलब्ध हो
जाती है। सफलता विफलता के विपरीत नहीं है–सब विफलताओं का सार-निचोड़ है। यह
जरा उल्टा लगेगा। सफलता विफलता का विरोध नहीं है, विफलताओं का सार-निचोड़
है। जो जल्दी रुक जाता है, दो-चार विफलताओं में भी घबड़ा जाता है, वह कभी
सफल नहीं हो पाता है। क्योंकि उसे यह कला ही पता नहीं कि सभी विफलताएं
जुड़कर सफलता बन जाती हैं।
समाधि के सप्तद्वार
ओशो
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