पहली बात,
अगर कोई व्यक्ति
मेरे जैसा होने की कोशिश करे तो मैं उसे रोकूंगा। उसे मैं कहूंगा, कि मेरे जैसा होने की कोशिश आत्मघात है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसे
होने की कोशिश की यात्रा पर निकले तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज
नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह
बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं तो उनका गवाह बनने में
मुझे कोई एतराज नहीं है, लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं।
मेरा कोई शिष्य नहीं है, मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने
संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं तो मुझे गवाह बन
जाने में कोई एतराज नहीं है, लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आए तो
मुझे भारी एतराज है।
मैं किसी को
शिष्य नहीं बना सकता हूं। क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं। अगर कोई मेरे पीछे चलने
आए तो मैं उसे इनकार करूंगा, लेकिन कोई अगर अपनी यात्रा पर जाता हो और
मुझसे शुभकामनाएं लेने आए तो शुभकामनाएं देने की भी कंजूसी करूं, ऐसा सम्भव नहीं है। फिर भी.. यह आपको दिखाई पड़ गया है—मैं गैरिक वस्त्र नहीं
पहनता हूं मैंने कोई गले में माला नहीं डाली हुई है। फिर उनके द्वारा मेरी नकल का
कोई कारण नहीं है!
फिर भी पूछते
हैं आप कि किसी को भी बिना उसकी पात्रता का खयाल किए मैं उसके संन्यास को स्वीकार
कर लेता हूं। जब परमात्मा ही हम सबको हमारी बिना किसी पात्रता के स्वीकार किए है
तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हो सकता हूं! हम सबकी पात्रता क्या है जीवन में! और
संन्यास के लिए एक ही पात्रता है कि आदमी अपनी अपात्रता को पूरी विनम्रता से
स्वीकार करता है। इसके अतिरिक्त कोई पात्रता नहीं है।
अगर कोई आदमी
कहता है कि मैं पात्र हूं मुझे संन्यास दें तो मैं हाथ जोड़ लूंगा, क्योंकि जो पात्र है उसको संन्यास की जरूरत ही नहीं। और जिसे यह खयाल है कि
मैं पात्र हूं वह संन्यासी नहीं हो पाएगा, क्योंकि संन्यास विनम्रता, ह्यूमिलिटी का फूल है। वह विनम्रता में ही खिलता है। जो आदमी पात्रता के
सर्टिफिकेट लेकर परमात्मा के पास जाएगा, शायद उसके लिए दरवाजे नहीं खुलेंगे।
लेकिन जो दरवाजे पर अपने आंसू लेकर खड़ा हो जाएगा और कहेगा मैं अपात्र हूं मेरी कोई
भी पात्रता नहीं है कि मैं द्वार खुलवाने के लिए कहूं; लेकिन फिर भी प्रयास है, आकांक्षा है; फिर भी लगन है, भूख है;
फिर भी दर्शन की
अभीप्सा है दरवाजे उसके लिए खुलते हैं।
मैं केहता आँखन देखी
ओशो
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