विवेकानंद
तलाश करते
थे--गुरु की
तलाश करते थे।
और जिसे भी
जानना हो उसे
गुरु की तलाश
ही करनी होगी।
उस तलाश में
वे बहुत लोगों
के पास गये।
रवींद्रनाथ
के दादा के
पास भी गये। उनकी
बड़ी ख्याति
थी। महर्षि
देवेंद्रनाथ!
महर्षि की तरह
ख्याति थी। वे
एक बजरे पर
रहते थे। विवेकानंद
आधी रात नदी
में कूदे, तैरकर बजरे
पर पहुंचे; सारा बजरा
हिल गया।
विवेकानंद
चढ़े, जाकर
दरवाजे को
धक्का दिया।
देवेंद्रनाथ
रात अपने
ध्यान में
बैठे थे। इस
पागल-से युवक
को देखकर बड़े
हैरान हुए।
कहा: किसलिए
आये हो युवक? क्या चाहते
हो? यह कोई
समय है आने का?
विवेकानंद
ने कहा कि समय
और असमय का सवाल
नहीं है। मैं
यह जानना
चाहता हूं:
ईश्वर है?
यह
बेवक्त आधी
रात का समय, यह कोई
पूछने की बात
है! ऐसे कोई
पूछने आता है!
पूछा न ताछा, द्वार ठेलकर
अंदर घुस आया
युवक, पानी
से भीगा हुआ, कपड़े पहने
हुए तर-बतर।एक
क्षण
देवेंद्रनाथ
झिझक गये।
उनका झिझकना था
कि विवेकानंद
वापिस कूद
गये।
उन्होंने कहा
भी कि वापिस
कैसे चले? तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर तो लेते
जाओ। लेकिन
विवेकानंद ने
कहा: आपकी
झिझक ने सब कह
दिया। अभी
आपको ही पता
नहीं।
और
यह बात सच थी।
देवेंद्रनाथ
ने लिखा है कि
घाव कर गयी
मेरे हृदय
में। यह बात
सच थी। मुझे भी
अभी पता नहीं
था, हालांकि
मैं उत्तर
देने को तत्पर
था।
फिर
यही
विवेकानंद
रामकृष्ण के
पास गया और रामकृष्ण
से भी यही
पूछा: ईश्वर
है? फर्क
देखना, कितना
फर्क है
महर्षि
देवेंद्रनाथ
के उत्तर में
और रामकृष्ण
के उत्तर में।
पूछा: ईश्वर
है? रामकृष्ण
ने एकदम गद्रन
पकड़ ली
विवेकानंद की
और कहा कि
जानना है, अभी
जानना है, इसी
समय जानेगा? यह
विवेकानंद
सोचकर न आये
थे कि कोई ऐसा
करेगा! कोई
ईश्वर को
जनाने के लिए
ऐसी गर्दन पकड़
ले एकदम से और
कहे कि अभी
जानना है? इसी
वक्त? तैयारी
है?... खुद
झिझक गये।
कहां झिझका
दिया था
देवेंद्रनाथ को,
अब झिझक गये
खुद! और
रामकृष्ण
कहने लगे:
ईश्वर को
पूछने चला है,
तो सोचकर
नहीं आया कि
जानना है कि
नहीं? और
इसके पहले कि
विवेकानंद
कुछ कहें, रामकृष्ण
तो दीवाने
आदमी थे, पागल
थे, पैर
लगा दिया
विवेकानंद की
छाती से और
विवेकानंद
बेहोश हो गये।
तीन घंटे बाद
जब होश में
आये तो जो
आदमी बेहोश
हुआ था वह तो
मिट गया था, दूसरा ही
आदमी वापिस
आया था। चरण
पकड़ लिए रामकृष्ण
के और कहा कि
मैं तो झिझक
रहा था, मैं
तो उत्तर न दे
सका, लेकिन
आपने उत्तर दे
दिया।
सदगुरु
की तलाश!
लेकिन पंडित
सदगुरुओं के
जैसे ही वचन
बोलते हैं, उससे सावधान
रहना। खोटे
सिक्के बाजार
में बहुत हैं।
और खयाल रखना,
खोटे
सिक्कों की एक
खूबी होती है,
तुम
अर्थशास्त्रियों
से पूछ सकते
हो। अर्थशास्त्री
कहते हैं, खोटे
सिक्के की एक
खूबी होती है
कि अगर तुम्हारी
जेब में खोटा
सिक्का पड़ा हो
और असली
सिक्का पड़ा हो
तो पहले तुम खोटे
को चलाते हो।
खोटे सिक्के
की खूबी होती
है कि वह चलने
को आतुर होता
है। अकसर ऐसा
होगा। तुम्हारी
जेब में अगर
दस का एक नकली
नोट पड़ा है और
एक असली, तो
तुम पहले नकली
चलाओगे न! जब
तक नकली चल
जाये, अच्छा।
और जिसके पास
भी नकली
पहुंचेगा, वह
भी पहले नकली
ही चलायेगा।
तो नकली
सिक्के चलन
में हो जाते
हैं, असली
सिक्के रुक
जाते हैं।
नकली सिक्के
चलने के लिए
आतुर होते
हैं।
इस
जगत में पंडित, मौलवी, पुरोहित
खूब चलते हैं।
सस्ते भी होते
हैं, सुविधापूर्ण
भी होते हैं, सांप्रदायिक
भी होते हैं, भीड़ के अंग
होते हैं, परंपरा
के समर्थक
होते हैं, रूढ़ि-अंधविश्वासों
के हिमायती
होते हैं, तुम्हारी
जिंदगी में
कोई क्रांति
लाने की झंझट
भी खड़ी नहीं
करते, सिर्फ
सांत्वना
देते हैं; घाव
हो तो एक फूल
रख देते हैं
घाव पर कि फूल
दिखाई पड़े, घाव दिखायी
पड़ना बंद हो
जाये। इलाज तो
नहीं करते।
इलाज तो कैसे
करेंगे? इलाज
तो अपने घावों
का भी अभी
नहीं किया हैं।
सहजयोग
ओशो
No comments:
Post a Comment