इसलिए जापान में वे बच्चों को घरों में सिखाते हैं। वह प्राणयोग का ही
एक सूत्र है। वे बच्चों को यह नहीं कहते कि तुम क्रोध मत करो। और मैं मानता
हूं कि जापानी इस मामले में सर्वाधिक होशियार हैं और सबसे कम क्रोध करते
हैं। सबसे ज्यादा मुस्कुराती कौम हैं। और राज प्राणयोग का एक सूत्र है।
मां-बाप बच्चों को परंपरा से घर में यह सिखाते हैं कि जब क्रोध आए, तब
तुम श्वास को आहिस्ता लो, धीमे-धीमे लो। गहरी लो और धीमे लो। स्लोली एंड
डीप, धीमे और गहरी। बच्चों को वे यह नहीं कहते कि क्रोध मत करो, जैसा कि हम
कहते हैं।
सारी दुनिया कहती है, क्रोध मत करो। क्रोध न करना, हाथ की बात नहीं है
इतनी कि आपने कह दिया और बच्चा न करे। और मजा तो यह है कि जो बाप बच्चे को
कह रहा है, क्रोध मत करो, अगर बच्चा न माने तो बाप ही क्रोध करके बता देता
है कि नहीं मानता! इतना कहा कि क्रोध मत कर! वह भूल ही जाता है कि अब हम
खुद ही वही कर रहे हैं, जो हम उसको मना किए थे।
क्रोध इतना हाथ में नहीं है, जितना लोग समझते हैं कि क्रोध मत करो।
क्रोध इतना वालंटरी नहीं है, नान वालंटरी है। इतना स्वेच्छा में नहीं है,
जितना लोग समझते हैं। इसलिए शिक्षा चलती रहती है; कुछ अंतर नहीं पड़ता है!
जापान ज्यादा ठीक समझा। योग का पुराना सूत्र, बुद्ध के द्वारा जापान
पहुंचा। बुद्ध ने श्वास पर बहुत जोर दिया। बुद्ध का सारा योग, कृष्ण जो इस
सूत्र में कह रहे हैं, प्राणयोग है।
इसलिए बुद्ध के सूत्र की गहरी बात अनापानसती योग कही जाती है। आती-जाती
श्वास को देखना ही योग है, बुद्ध ने कहा। अगर कोई आती-जाती श्वास के राज को
पूरा समझ ले, तो फिर उसको दुनिया में और कुछ करने को नहीं रह जाता। इसलिए
बुद्ध तो कहते हैं, अनापानसती योग सध गया कि सब सध गया। बात ठीक कहते हैं।
उधर से भी सब सध जा सकता है।
क्रोध आता है, तब आप देखें कि श्वास बदल जाती है। जब आप शांत होते हैं,
तब श्वास बदल जाती है, रिदमिक हो जाती है। आप आरामकुर्सी पर भी लेटे हैं,
शांत हैं, मौज में हैं, चित्त प्रसन्न है, पक्षियों जैसा हलका है, हवाओं
जैसा ताजा है, आलोकित है। तब देखें, श्वास ऐसी हो जाती है, जैसे हो ही
नहीं। पता ही नहीं चलता। बहुत हलकी हो जाती है; न के बराबर हो जाती है।
देखें, जब कामवासना मन को पकड़ती है, सेक्स मन को पकड़ता है, तो श्वास
कैसी हो जाती है? श्वास एकदम अस्तव्यस्त हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है,
जब कामवासना मन में आंदोलित होती है। रक्तचाप बढ़ जाता है; शरीर पसीना छोड़ने
लगता है, श्वास तेज हो जाती है और अस्तव्यस्त हो जाती है, टूट-फूट जाती
है।
प्रत्येक समय भीतर की स्थिति के साथ श्वास जुड़ी है। अगर कोई श्वास में
बदलाहट करे, तो भीतर की स्थिति में बदलाहट की सुविधा पैदा करता है, और भीतर
की स्थिति पर नियंत्रण लाने का पहला पत्थर रखता है।
प्राणयोग का इतना ही अर्थ है कि श्वास बहुत गहरे तक प्रवेश किए हुए है,
वह हमारी आत्मा को भी छूती है। एक तरफ शरीर को स्पर्श करती है, दूसरी तरफ
आत्मा को स्पर्श करती है। एक तरफ जगत को छूती है बाहर, और दूसरी तरफ भीतर
ब्रह्म को भी छूती है। श्वास दोनों के बीच आदान-प्रदान है–पूरे समय,
सोते-जागते, उठते-बैठते। इस आदान-प्रदान में श्वास का रूपांतरण प्राणयोग
है, ट्रांसफार्मेशन आफ दि ब्रीदिंग प्रोसेस। वह जो प्रक्रिया है हमारे
श्वास की, उसको बदलना। और उसको बदलने के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को
उपलब्ध हो सकता है।
गीता दर्शन
ओशो
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