हम व्यक्तियों में झांकने से बचते हैं, हम लेबल लगा देते हैं।
कोई दो मुसलमान एक से होते हैं? कि कोई दो हिंदू एक से होते हैं? कि कोई दो कम्युनिस्ट एक से होते हैं? एक आदमी तो अकेला अपने ही जैसा होता है, दूसरा उसके जैसा कोई होता ही नहीं। लेकिन सुविधा इसमें है। क्योंकि अगर हम एक एक को अद्वितीय मान लें, तो एक एक का अध्ययन करना पड़ेगा। इतनी झंझट में कौन पड़े? तो हम उसका धंधा पूछ लेते हैं, व्यवसाय पूछ लेते हैं, फिर हम निश्चिंत हो जाते हैं। उससे हम तय कर लेते हैं। ऊपर ऊपर से दो मिनट में तय हो जाता है कि दूसरा आदमी कौन है।
पूरी जिंदगी भी अध्ययन करके मुश्किल है दूसरे आदमी को जानना कि वह क्या है! हम दो मिनट में तय कर लेते हैं, उस हिसाब से चलने लगते हैं! फिर हम इमेज बना लेते हैं, प्रतिमाएं बना लेते हैं। ईं वे भी तरकीबें हैं हमारी।
आपके मन में आपकी पत्नी की एक प्रतिमा है। आपकी पत्नी के मन में आपके बाबत, अपने पति के बाबत एक प्रतिमा है। बस उसी प्रतिमा से काम चलता है! सीधे आदमी से कोई संबंध नहीं है! पत्नी जानती है कि पति को क्या करना चाहिए। अगर पति वही करता है तो ठीक है, अगर वही नहीं करता है तो गलत है। लेकिन पति क्या है, इसके समझने की उसे कोई चिंता नहीं है। सिद्धांत पहले से तय हैं। उन सिद्धांतो पर, आदमियों को हम ढांचे में बिठा देते हैं! ढांचे आदमियों के लिए नहीं हैं, आदमी ढांचों के लिए मालूम पड़ते हैं! तो वह यह नहीं देखती कि यह जो पति सामने खड़ा है, यह क्या है? पति की एक धारणा है, उस धारणा से वह जीवित है! अगर वह धारणा के अनुकूल है तो ठीक है, अगर प्रतिकूल है तो ठीक नहीं है!
लेकिन कोई भी आदमी किसी धारणा के अनुकूल, प्रतिकूल नहीं होता। प्रत्येक आदमी अपने ही जैसा होता है। सभी धारणाएं ओछी पड़ जाती हैं। सभी धारणाएं रेडीमेड कपड़ों की तरह होती हैं। वह आपके लिए नहीं बनाई गई होती हैं। सामान्य हिसाब से बनाई गई होती हैं, औसत होती हैं। और हर आदमी औसत से भिन्न होता है। कोई आदमी औसत में नहीं होता।
जैसे, हो सकता है आप अपने गांव की ऊंचाई नाप लें, सब आदमी की ऊंचाई नाप ली जाए— छोटे बच्चे भी हैं, बूढ़े भी हैं, लंबे लोग भी हैं, ठिगने लोग भी हैं, पांच सौ आदमी हैं—पांच सौ की ऊंचाई नाप कर पांच सौ का भाग दे दिया जाए, तो जो आएगा, वह औसत ऊंचाई होगी। फिर आप उस औसत ऊंचाई के आदमी को खोजने जाएं, गांव में एक आदमी नहीं मिलेगा, जो उस औसत ऊंचाई का हो। क्योंकि कोई औसत होता ही नहीं। औसत तो एक झूठ है। हर आदमी अपनी ही ऊंचाई का होता है। औसत जैसी कोई चीज नहीं होती। एवरेज गणित का हिसाब है, जिंदगी का नहीं है।
तो हम सिद्धांत, प्रतिमाएं निर्मित करके उनमें जीते रहते हैं। सीधा कोई देखता ही नहीं, हृदय में कोई झांकता नहीं! हृदय में क्या हो रहा होगा, इससे किसी को प्रयोजन भी नहीं! वह जरा खतरनाक मामला भी है। क्योंकि हृदय में झांको तो आप उलझन में पड़ सकते हो। इसलिए दूर बाहर खडे रहना अच्छा है। ज्यादा गहराई में किसी के भी उतरना खतरनाक है। क्योंकि तब दूसरे की गहराई आपको भी बदलेगी। तब इतनी आसानी से आप निपटारा न कर सकेंगे।
आपका नौकर है। आप उसके हृदय में कैसे झांक सकते हैं? झाकेंगे तो झंझट आएगी। झांकेंगे तो फिर उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार करना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि तब वह एक मानव हृदय है। उसके साथ नौकर जैसा व्यवहार रखना है, तो फिर आपको हृदय में नहीं झांकना चाहिए।
अगर आप उसके हृदय में झांकते हैं, तो आप झंझट में पड़ेंगे। आपको कुछ करना पडेगा। तब आप भी सोच में पड़ जाएंगे कि पचास रुपए वेतन इस आदमी को हम देते हैं, क्या होता होगा? इसकी मां है की, इसका बच्चा है, इसकी पत्नी है, घर है, पचास रुपए में यह कैसे जीता होगा? अगर इसके ह्रदय में झांकेंगे तो आपको किसी न किसी दिन इस आदमी की जगह अपने को रख कर सोचना पड़ेगा कि अगर मुझे पचास रुपए मिलें, तो क्या होगा?
इससे उचित है कि भीतर हृदय में न उतरा जाए, दूर रहा जाए। इतना ही समझा जाए कि यह आदमी काम करता है, पचास रुपए काम के दिए जाते हैं। इससे ज्यादा इस आदमी के संबंध में समझदारी खतरनाक है। इसलिए हमने दीवालें खड़ी कर ली हैं। हम किसी के हृदय में नहीं झांकते, हम दूर दूर रहते हैं। हम सब एक दूसरे से अछूत की तरह रहते हैं।
साधना सूत्र
ओशो
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