मैं एक सज्जन को जानता हूं मेरे पड़ोस में ही रहते थे। उनको लोग बड़ा धार्मिक मानते थे। जब मैं उस जगह गया पहली दफा रहने तो लोगों ने मुझसे कहा कि हमारे पड़ोस में एक अदभुत व्यक्ति रहते हैं, बड़े धार्मिक हैं! मैंने कहा, उनकी धार्मिकता के संबंध में कुछ विस्तार से मुझे कहो, क्योंकि मैं इतने धार्मिक लोगों को जानता हूं और जब उनका विस्तार पता चलता है तो बड़ी हैरानी होती है।
उनकी धार्मिकता की प्रसिद्धि का कुल कारण इतना था कि वे सुबह नल पर जब पानी भरने जाते थे तो अगर कोई स्त्री दिखाई पड़ जाए तो फिर से बर्तन मलते, फिर धोते, फिर पानी भरते, इस बीच फिर कोई स्त्री दिखाई पड़ जाए तो फिर बर्तन मलते। कभी कभी दस दफा, कभी कभी बीस दफा, कभी तीस दफा! पानी भर कर चले आ रहे हैं रास्ते पर और फिर कोई स्त्री दिख गई। अब स्त्रियां ही स्त्रियां हैं सब तरफ। इससे उनकी बड़ी ख्याति थी कि अहा, यह है ब्रह्मचर्य!
अब यह आदमी ब्रह्मचारी है या पागल?
एक महिला को मैंने कहा कि मैं तुझे दस रुपये दूंगा, तू आज इनके पीछे ही पड़ जा। तेरा दिन भर का काम इतना ही है कि उसी नल के आस—पास चक्कर लगाती रह, जहां ये पानी भरते हैं। आज सांझ तक इनको पानी भरने नहीं देना है।…… .दस दफा, बीस दफा, पच्चीस दफा, तीस दफा, फिर आखिर उनको आग जलने लगी, क्रोध आने लगा कि यह तो स्त्री शरारत कर रही है। मतलब वही की वही स्त्री आ जाती है बार—बार!
और मालूम है उन्होंने क्या किया? उन्होंने अपना जो बर्तन था, जो मटका था, वह उस स्त्री के सिर पर दे मारा। उस स्त्री को अस्पताल ले जाना पड़ा। उसने मुझसे कहा कि दस रुपये में आपने मंहगा काम करवाया।
मैंने कहा तू फिकर मत कर, मगर एक आदमी का अध्यात्म तो समाप्त हुआ, एक आदमी का अध्यात्म से छुटकारा हुआ! मोहल्ले भर के लोगों ने कहा कि यह कैसा आदमी है! भाई तुम्हें अपना बर्तन धोना है धोओ, मगर किसी के सिर पर तो नहीं मार सकते।
अब तक इसको वहां तक नहीं खींचा गया था जहां दुर्वासा प्रकट हो जाता है, क्योंकि कभी कोई एक स्त्री निकल गई तो ठीक है, उसने धो लिया अपना बर्तन। और इससे उसको प्रतिष्ठा मिल रही थी, इसलिए इसमें रस भी था। जिस दिन कोई स्त्री न गुजरती होगी उस दिन उसे मजा भी नहीं आता होगा। मगर एक सीमा है हर चीज की।
मैंने उन सज्जन को जाकर कहा कि उस स्त्री पर नाराज न हों, नाराज होना हो तो मुझ पर हों। मैंने ही आयोजन किया था, देखना था कि अध्यात्म किस तरह का है। और स्त्री को देख कर तुम्हारा जल अपवित्र हो जाता है! तुम्हारा बर्तन अपवित्र हो जाता है! देखते तुम हो कि बर्तन देखता है? अगर स्त्री को देख कर कुछ अपवित्र होता है तो तुम स्नान किया करो, बर्तन क्यों मलते हो? बर्तन बेचारे के पास आंखें भी नहीं हैं! और पानी को क्यों बदलते हो, पानी का क्या कसूर है? और जिस नदी से यह पानी आ रहा है, उसमें स्त्रियां नहा रही हैं, स्त्रियां ही नहीं, भैंसें किल्लोल कर रही हैं, क्रीड़ा कर रही हैं। और यह नल जिससे तुम पानी भर कर आते हो, यह नालियों में से गुजर रहा है, जमाने भर की गंदगियों में से गुजर रहा है, कहां कहां से होकर चला आ रहा है वह सब ठीक!
और मैंने उनसे पूछा कि जब तुम पैदा हुए थे तो स्त्री से पैदा हुए कि पुरुष से? नौ महीने मां के पेट में रहे कि नहीं? तब क्या करते रहे? कैसे गुजारे नौ महीने? फिर मां का दूध पीकर बड़े हुए, उसकी शुद्धि कैसे करोगे? तुम जाओ अस्पताल में और सारा खून बदलवा लो। सब खून निकलवा कर नया खून डलवा लो। मगर ध्यान रखना, नया खून भी ऐसे आदमी से डलवाना जो स्त्री से पैदा न हुआ हो, और ऐसे आदमी का डलवाना जो स्त्री से पैदा न हुआ हो। बेहतर तो यह हो कि तुम खून निकलवा लो, पानी भरवा लो— शुद्ध, गंगाजल!
मगर उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। जब मैं वहां रहने लगा तो कुछ ही दिनों में वे छोड़ कर चले गए उस इलाके को। मैंने कहा तुम भाग न सकोगे, तुम जिस इलाके में जाओगे वहीं मैं आ जाऊंगा। वे तो गांव ही छोड़ दिए। उनका पता ही नहीं चला वे कहां गए। वे किसी दूसरी जगह परमहंस हो गए होंगे। तुम किसको अब तक साधु कहते रहे, संत कहते रहे भगोड़ों को, पलायनवादियों को? और कारण कुल इतना था कि हमने बाहर और अंतर को तोड़ दिया। तो एक तरफ थोथा धार्मिक आदमी पैदा हुआ, जो करीब करीब विक्षिप्त है, और दूसरी तरफ भोगी पैदा हुआ, वह भी बेचारा विक्षिप्त है। क्योंकि वह सोचता है कि मैं तो बाहर की यात्रा पर लगा हूं मैं कैसे भीतर जाऊं! तो वह भीतर जाने की चेष्टा नहीं करता। फिर उसे डर भी है कि भीतर जाएगा तो बाहर की सारी की सारी व्यवस्था तोड़नी पड़ेगी; वह वह तोड़ना नहीं चाहता, उसके बड़े न्यस्त स्वार्थ हो गए हैं।
तुम्हारे तथाकथित धर्म ने कुछ लोगों को भीतर की विक्षिप्तता दे दी और कुछ लोगों को बाहर अटका दिया। मैं यह सारा जाल तोड़ देना चाहता हूं। इसलिए मुझसे सांसारिक भी नाराज होंगे और धार्मिक भी नाराज होंगे। मेरी उदघोषणा है कि बाहर और भीतर संयुक्त हैं, इनको अलग नहीं किया जा सकता। अलग करने की कोशिश करना भी मत, क्योंकि इन दोनों से मिल कर ही पूर्ण सत्य निर्मित होता है।
मन ही पूजा मन ही धुप
ओशो
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