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Tuesday, April 19, 2016

दुख का साक्षात्कार

तुम सोचो। कोई तुमसे कहे, कल तुम्हें मरना है। तो शायद थोड़ा झटका लगे। लेकिन कोई कहे कि एक सप्ताह बाद। तो उतना झटका नहीं लगता। और एक साल बाद। तो तुम कहते हो, देखेंगे जी। दस साल बाद। तो तुम कहते हो. छोड़ो भी, कहां की बकवास लगा रखी है! सत्तर साल बाद। तो वह तो ऐसा लगता है कि करीब करीब अमरता मिल गयी! करना क्या है और! सत्तर साल कहीं पूरे होते हैं? इतना लंबा फासला! फिर तुम्हें दिखायी नहीं पड़ता।

दुख अभी है, मृत्यु दूर है। शायद इसीलिए तुम डरते नहीं। क्योंकि जो दुख से डरता है, वह मृत्यु के प्रति वस्तुत: अभय को उपलब्ध नहीं हो सकता है। मगर सिर्फ दूर है, इसलिए तुम्हें अभी अड़चन नहीं है। तुम कहते हो कि जब होगा, तब देख लेंगे। अभी तो यह सिरदर्द जान खा रहा है। कि अभी तो यह चिंता मन को पकड़े हुए है। अभी तो इस धंधे में दाव लगा दिया है, कहीं सब न खो जाए। अभी यह नुकसान लग गया है दुकान में। अभी यह पत्नी छोड़कर चली गयी!
 
अभी ये छोटी छोटी बातें काटे की तरह चुभ रही हैं। और जब ये छोटी छोटी बातें कांटे की तरह चुभ रही हैं, तो जब तलवार उतरेगी मृत्यु की और गरदन काटेगी, तो तुम सोचते हो, तुम सुख से मर सकोगे? असंभव है। जब काटे इतना दुख दे रहे हैं, तो तलवार, जो बिलकुल काट जाएगी! काटे तो छोटे छोटे हैं। तलवार तो पूरी तरह छिन्न भिन्न कर देगी।

नहीं; तुम्हें पता नहीं है मौत का। अभी तुम्हें दुख का ही पता नहीं है, तो मौत का क्या पता होगा!

तुम दुख का साक्षात्कार करो। तुम दुख को देखना शुरू करो। इसी दुख से पहचान होती जाए, इसी दुख से धीरे धीरे तुम्हारे भीतर बल पैदा होता जाए, तो एक दिन ऐसी घड़ी आएगी कि मौत भी आएगी और तुम अविचल खड़े रहोगे। मौत तुम्हें घेर लेगी, और तुम्हारे भीतर कोई झंझावात न होगा। मौत आएगी, और तुम अछूते रह जाओगे। 

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

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