लोग रास्ते पर मिल जाते हैं, भीतर तो कहते हैं कि हे भगवान, आज बचाना, कहां से इस शैतान की सुबह से ही शकल दिखाई पड़ गई! लेकिन उससे ऐसा नहीं कहते, उससे कहते हैं; धन्यभाग कि आप सुबह ही सुबह मिल गए! अरे कितने दिनों से लालसा थी। बड़े मुश्किल से दर्शन हुए, बड़े दुर्लभ दर्शन हैं आपके! और भीतर यही कह रहे हैं कि हे प्रभु, अब बचाना! अब ये चौबीस घंटे किसी तरह गुजर जाएं तो ठीक है। यह सुबह ही सुबह कहां से अपशकुन हो गया! मगर वे भीतर की बातें भीतर, बाहर की बातें बाहर।
मैं जानता हूं कि बाहर की जिंदगी है तो वहां मुखौटे भी हैं और वहां राजनीति भी है, क्योंकि बाकी सारे लोग राजनीति से भरे हैं और मुखौटों से भरे हैं। मगर मुखौटा ओढ़ कर जाओ तो उसको फिर कोई घर लगाए रखने की जरूरत नहीं है, घर आकर निकाल कर रख दिया। घर अपने असली चेहरे में आ गए। इसीलिए घर है।
घर को मंदिर बनाओ! यही मेरी सारी शिक्षा का सार है: घर को मंदिर बनाओ! क्योंकि वह प्रेम का स्थल है। वहां पूजा के दीप जलाओ! वहां जलने दो धूप! वहां सब मुखौटे एक तरफ रख दिया करो। वहां सारी राजनीति छोड़ दिया करो।
मगर पत्नी के साथ भी राजनीति चल रही है, पति के साथ भी राजनीति चल रही है। बच्चों के साथ राजनीति चल रही है! छोटे छोटे बच्चों को भी तुम धोखा दे रहे हो! उनसे भी झूठी बातें कह रहे हो! फिर अड़चन हो जाती है। लेकिन जिम्मा तुम्हारा है। बहिर्यात्रा का जिम्मा नहीं है। यह तुम्हारी भ्रांति है। यह तुम्हारे विवेक की कमी है। घर आते ही सब जाल जंजाल दरवाजे पर रख दिया; जहां जूते उतारते हो वहीं सब उतार कर रख दिया। घर निपट सहज मानव हो गए। जब बाहर गए, फिर जूते पहन लिए, फिर मुखौटे पहन लिए। खेल समझो इसको! और बाहर भीतर अगर तुम खेल समझ कर आओ जाओ तो साक्षी का जन्म हो जाए।
उसी साक्षी को मैं संन्यास कहता हूं। न तो संन्यास अंतर्यात्रा है और न संन्यास बहिर्यात्रा है। बहिर्यात्रा अतर्यात्रा दोनों के बीच साक्षी का जग जाना। भीतर भी जाओ और बाहर भी जाओ; फिर भी अलग थलग बने रहो, दोनों से अस्पर्शित रहो, दोनों से मुक्त, तादात्म्य न हो। उस साक्षीभाव को मैं संन्यास कहता हूं।
मन ही पूजा मन ही धुप
ओशो
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