..... जिससे भी प्रेम करता थैं, तो वस्तुत परमात्मा की तलाश में ही करता है। तुम जब किसी स्त्री के सौंदर्य से
मोहित हुए हो, तो अनजाने ही सही, उस स्त्री के चेहरे के दर्पण में तुम्हें परमात्मा की कुछ छवि दिखायी पड़ी है।
तुम्हें होश हो कि न हो। तुम जब किसी पुरुष के प्रेम में पड़े हो, तो तुम्हें कुछ भनक सुनायी पड़ी है। दूर की आवाज सही, साफ साफ पकड़ में भी न आती हो, मुट्ठी भी न बँधती हो, लेकिन जब भी तुमने किसीको चाहा है तो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि तुमने
परमात्मा को ही चाहा है। लेकिन तुम अपनी चाहत के रंग को समझ नहीं पाए, चाहत के ढंग को समझ नहीं पाए। चाहा कुछ, उलझ गये कहीं और।
जैसे खिड़की से
किसी ने सूरज को ऊगते देखा और खिड़की के चौखटे को पकड़ कर बैठ गया, और खिड़की की पूजा करने लगा। खिड़की में कुछ बुरा भी नहीं है, सूरज को दिखाया है खिड़की ने, तो धन्यवाद दो, मगर खिड़की की पूजा करने बैठ गये! फिर सूरज का क्या होगा? खिड़की लक्ष्य बन जाती है, माध्यम होती तो ठीक थी।
ऐसे ही हमने
किसी मनुष्य के चेहरे में परमात्मा की झलक पायी,
किन्हीं आँखों
में उसकी शराब उतरती देखी, किसी युवा देह में उसकी बिजली चमकी, उसकी बिजली कौंधी, हम देह को पकड़कर बैठ गये, हम आँख की पूजा करने लगे, हम रूप के पुजारी हो गये अgएएर हम यह भूल ही गये कि सब रूप में अरूप झलकता है, सब आकार में निराकार, सब गुणों में निर्गुण। इतनी भर याद आ
जादू, तो जीवन मे वह पड़ाव आ जाता है जहाँ से
नयी यात्रा शुरू होती है। वह मोड़ आ जाता है, जीवन 'नर्म का पहनावा पहन लेता है, जीवन धर्म को गीत गाने लगता है।
संसार है तो
परमात्मा का ही प्रेम, लेकिन माध्यम से हो गया है। और माध्यम को
हम इतने जोर से पकड़ लेते हैं कि माध्यम जिसे दिखाने के लिए है, वह चूक ही उठाता है। ऐसा समझो कि किसी से तुम्हें प्रेम हो जाए और तुम उसके
वस्त्रों को ही सब कुछ समझ लो और उसकी देह की तलाश ही न करो, तो तुम्हें लोग पागल कहेंगे। संसार पागल है। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए और
तुम उसकी देह पकड़ लो और उसकी आत्मा की तलाश ही न करो, यह भी पहली ही जैसी भ्रांति है। क्योंकि देह वस्त्र से ज्यादा नहीं है।
तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए और तुम उसकी आत्मा को ही पकड़ लो और परमात्मा तक
तुम्हारे प्राण न उठें, फिर भी भूल हो गयी। खोदे चलो। खोजे चलो।
हर जगह से तुम परमात्मा तक पहुँच सकते हो। क्योंकि हर जगह वही छिपा है। आवरण कितने
ही हो, आवरण उघाड़े जा सकते हैं। न तो आवरणों को
पकड़ना और न आवरणों से भयभीत होकर भाग जाना।
दुनिया में दो
तरह के काम होते रहे हैं। कुछ लोग आवरण पकड़ लेते हैं किन्हीं ने खिड़की की पूजा
शुरू कर दी है। और इनकी मूढ़ता को देखकर कुछ लोग खिड़की को छोड्कर भाग गये हैं। ऐसे
भागे हैं कि खिड़की के पास नहीं आते। दोनों ने भूल कर दी है। क्योंकि सूरज खिड़की से
ही देखा जा सकता है। न तो पूजनेवाला देख पाएगा और न भगोड़ा देख पाएगा।
संसार परमात्मा
की खिड़की है। भोगी भी नहीं देख पाता और जिसको तुम योगी कहते हो, वह भी चूक जाता है। भोगी ने जोर से पकड़ लिया है संसार, योगी इतना घबड़ा गया है भोगी की पकड़ देखकर कि उसने पीठ कर ली और भागा जंगल की
तरफ। लेकिन संसार उसका ही है। वही यहाँ तरंगित है। यह गीत उसका है। इस बाँसुरी पर
उसी के स्वर उठ रहे हैं। बाँसुरी को न तो पकड़ो, न बाँसुरी से डरो, बाँसुरी से आते हुए अज्ञात स्वरों को पहचानो। फिर बाँसुरी का भी सन्मान होगा।
सच्चे धार्मिक व्यक्ति के मन में संसार का अनादर नहीं होता, सम्मान होता है। क्योंकि यही तो परमात्मा से जोड्ने का उपाय है, यही तो सेतु है। सच्चा व्यक्ति संसार का भी अनुगृहीत होता है, क्योंकि इसी ने परमात्मा तक लाया। सच्चा व्यक्ति अपनी देह का भी अनुगृहीत होता
है, क्योंकि यह देह वाहन है।
सच्चा व्यक्ति किसी चीज के विरोध में ही नहीं
होता। सब चीजों का उपयोग कर लेता है। समझदार वही है जो जहर का अमृत की तरह उपयोग
कर ले। वही कुशल है, और वही बुद्धिमान।
संतो मगन भया मन मेरा
ओशो
No comments:
Post a Comment