या तो मेरा कसूर होगा, या तुम्हारे पास अभी समझ ही नहीं है।
मैं तो जो कह रहा हूं सीधा साफ है। इसमें जरा भी उलझाव नहीं है। लेकिन
मैं समझ सकता हूं; तुम्हें उलझाव दिखते होंगे। क्योंकि तुम्हारे देखने के
ढंग, तुम्हारे सोचने के ढंग में शायद बात न बैठती हो। बैठ भी नहीं सकती।
अगर तुम्हें मेरी बात समझनी है, तो तुम्हें सोचने के ढंग बदलने होंगे।
तुम्हें सोचने की नयी शैली सीखनी .होगी। तुम्हें तर्क की सीमाओं के बाहर
आना होगा। तुम्हें शब्दों के जाल से, शास्त्रों की रटी रटायी बातों से थोड़ा
ऊपर उठना होगा। तुम्हें आदमी बनना होगा। तुम्हें तोते होने से थोड़ा
छुटकारा लेना होगा।
समझ के भी बहुत तल हैं। उतनी ही बात समझ में आती है, जहां तक हमारा तल होता है।
मैंने सुना. एक डाक्टर छोटे से बच्चे से बोला, उसकी जांच करता होगा; बेटे,
तुम्हें नाक कान से कोई शिकायत तो नहीं है? नाक से बलगम टपक रहा है।
सर्दी जुकाम इतने जोर से है बच्चे को कि उसे कुछ ठीक से सुनायी भी नहीं
पड़ता। कान तक रुंध गए हैं। छाती घर्र घर्र हो रही है। और डाक्टर पूछता है :
बेटे, तुम्हें नाक कान से कोई शिकायत तो नहीं है?
बच्चे ने कहा : जी है। वे कमीज उतारते बीच में आते हैं।
अपनी अपनी समझ। अब बच्चे की तकलीफ यह है कि जब भी कमीज उतारता है, तो नाक कान बीच में आते हैं। एक तल है।
तुम्हें शायद मेरी बात समझ में न आती हो। हो सकता है।
एक मित्र ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा : मुल्ला जी! मैं विवाह इस कारण नहीं करना चाहता हूं कि मुझे स्त्रियों से बहुत डर लगता है।
मुल्ला ने कहा अगर ऐसी बात है, तब तो तुम विवाह तुरंत कर डालो। मैं
तुम्हें अपने अनुभव से कहता हूं कि विवाह के बाद एक ही स्त्री का भय रह
जाता है। अपना अपना अनुभव। अपनी अपनी समझ।
एक बाप ने अपने बेटे से कहा : जमाना बहुत आगे बढ़ गया है। तुम खुद अपने योग्य लड़की देख लो।
बेटा बड़ा प्रसन्न हुआ। और तो कभी पिता के चरण न छूता था। आज उसने पिता
के चरण छुए। और पिता की आज्ञा मानकर पुत्र ने नियमित रूप से बालकनी में खड़े
होकर लड़की देखना शुरू कर दिया।
तुम वही समझ सकते हो, जो तुम समझ सकते हो।
अगर तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आ रही है, तो दो उपाय हैं। या तो मैं
ऐसी बात कहूं जो तुम्हारी समझ में आ जाए। या तुम ऐसी समझ बनाओ कि जो मैं
कहता हूं वह समझ में आ जाए!
अगर मैं ऐसी बात कहूं जो तुम्हें समझ में आ जाए, तो सार ही क्या होगा!
वह तो तुम्हें समझ में आती ही है। फिर मेरे पास आने का कोई प्रयोजन नहीं
है।
तो मैं तो वह बात नहीं कहूंगा, जो तुम्हारी समझ में आ सकती है। मैं तो
वही कहूंगा, जो सच है। तुम्हें समझ में न आती हो, तो समझ को थोड़ा निखारो।
थोड़ी धार रखो समझ पर। समझ को बदलो।
यही तो शिष्यत्व का अर्थ है कि अगर समझ में नहीं आता है, तो हम समझ को
बदलेंगे। उसमें थोड़ी कठिनाई होगी। थोड़ा श्रम करना होगा। और लोग श्रम बिलकुल
नहीं करना चाहते। तो फिर तुम अटके रह जाओगे तुम्हीं में।
या तो मैं तुम्हारे पास आऊं या तुम मेरे पास आओ। अच्छा यही होगा कि तुम
मेरे पास आओ। उससे तुम्हारा विकास होगा। मैं तुम्हारे पास आऊं, उससे
तुम्हारा कोई विकास नहीं होगा। उसमें तो तुम और जड़बद्ध हो जाओगे, जहां हो
वहीं। तो जरूर मुझे इस ढंग से तुमसे बातें कहनी पड़ती हैं कि कुछ तो
तुम्हारी समझ में आएं और कुछ तुम्हारी समझ में न आएं।
अगर मैं बिलकुल ऐसी बात कहूं कि तुम्हें बिलकुल ही समझ में न आए, तो
तुम्हारा मुझसे नाता टूट जाएगा। तब मैं कहीं दूर से चिल्ला रहा हूं और तुम
कहीं बहुत दूर खोए हो। वहां तक आवाज भी नहीं पहुंचेगी।
तो कुछ तो मैं ऐसी बातें कहता हूं जो तुम्हारी समझ में आएं, ताकि नाता
बना रहे। लेकिन अगर मैं उतनी ही बातें कहता रहूं जो तुम्हारी समझ में आती
हैं, तो नाता तो बना रहेगा, लेकिन लाभ क्या होगा? ऐसे नाते का प्रयोजन
क्या?
तो कुछ ऐसी बातें भी कहता हूं जो तुम्हारी समझ में न आएं। ताकि नाता बना
रहे, सेतु जुड़ा रहे, तुम्हें कुछ समझ में आता रहे। और कुछ जो समझ में नहीं
आता, उसे समझने के लिए तुम थोड़े हाथ ऊपर बढ़ाते रही। तुम्हारे हाथ ऊपर
बढ़ाने में ही किसी दिन आकाश को तुम छुओगे।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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