पहली
बात कि जीवन
को खंडों में
नहीं बांटा जा
सकता है। और
चुनाव करने के
लिए बांटना
जरूरी है, अन्यथा
चुनाव कैसे
करोगे? और
फिर तुम जिसे
चुनोगे वह
रुकने वाला
नहीं है—देर—अबेर
वह जाने वाला
है। और तब वह
हिस्सा सामने
आएगा जिसको
तुमने इनकार किया
है; तुम
उससे बच नहीं
सकते। तुम यह
नहीं कह सकते
कि दिन तो मैं
लूंगा, लेकिन
रात नहीं
लूंगा; तुम
यह नहीं कह
सकते कि मैं श्वास
लूंगा, लेकिन
छोडूंगा नहीं,
मैं उसे
बाहर नहीं जाने
दूंगा।
जीवन
विरोधों से
बना है, वह
विरोधी
स्वरों से बना
हुआ संगीत है।
श्वास भीतर
आती है, श्वास
बाहर जाती है,
और इन दो
विरोधों के
बीच, उनके
कारण ही, तुम
जीवित हो।
वैसे ही दुख
है और सुख है।
सुख आने वाली
श्वास की
भांति है; दुख
जाने वाली
श्वास की
भांति है। या
सुख—दुख दिन—रात
जैसे हैं।
विरोधी
स्वरों का
संगीत है जीवन।
और तुम यह
नहीं कह सकते
कि मैं सुख के
साथ ही रहूंगा,
दुख के साथ
नहीं रहूंगा।
और अगर तुम यह
दृष्टिकोण
रखते हो तो
तुम और गहरे
दुख में
गिरोगे। यही
विरोधाभास है।
स्मरण
रहे,
कोई आदमी
दुख नहीं
चुनता है, दुख
नहीं चाहता है।
तुम पूछते हो,
क्यों आदमी
दुख का चुनाव
करता है। किसी
ने भी दुख का
चुनाव नहीं
किया है।
तुमने तो सुखी
रहने का चुनाव
किया है, दुखी
रहने का नहीं।
और तुमने सुखी
रहने का चुनाव
दृढ़ता के साथ
किया है। सुखी
रहने के लिए
तुम सारे
प्रयत्न करते
हो, उसके
लिए तुम कुछ
भी उठा नहीं
रखते हो।
लेकिन
विडंबना यह है
कि इसी कारण
तुम दुखी हो, इसी कारण
तुम सुखी नहीं
हो। फिर किया
क्या जाए?
स्मरण
रखो कि जीवन
अखंड है, जीवन
समग्र है।
इसमें चुनाव
संभव नहीं है।
पूरे जीवन को
स्वीकार करना
है। पूरे जीवन
को जीना है।
सुख के क्षण
आएंगे और दुख
के भी क्षण
आएंगे; और
दोनों को
अंगीकार करना
है। चुनाव
व्यर्थ है; क्योंकि
जीवन दोनों है।
अन्यथा
लयबद्धता खो
जाएगी, और
इस लयबद्धता
के बिना जीवन
नहीं चल सकता
है।
जीवन
संगीत जैसा है।
तुम संगीत
सुनते हो, उसमें
दो स्वरों के
बीच मौन का
अंतराल है।
स्वर और मौन, इन दो
विरोधी
तत्वों के
मिलन से संगीत
का जन्म होता
है। अगर तुम
कहो कि मैं
सिर्फ स्वर ही
लूंगा, मौन
के अंतराल को
नहीं लूंगा, तो संगीत
नहीं पैदा
होगा। वह कोई
एक—सुरी चीज
होगी, वह
मृत होगी। वे
अंतराल ही
संगीत को
प्राणवान
बनाते हैं।
जीवन
का सौंदर्य भी
यही है कि वह
विरोधों के आधार
पर खड़ा है।
जैसे स्वर और
मौन,
स्वर और
शून्य मिलकर
संगीत को जन्म
देते हैं, वैसे
ही सुख और दुख,
दो विरोधों
से मिलकर जीवन
निर्मित होता
है।
तंत्र सूत्र
ओशो
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