अफ्रीका में एक मकोड़ा होता है। जब भी नर मकोड़ा मादा मकोड़े के साथ संभोग में जाता है, इधर मकोड़ा संभोग शुरू करता है, उधर मादा उस मकोड़े के शरीर को खाना शुरू कर देती है। एक ही संभोग कर पाता है वह मकोड़ा, क्योंकि वह संभोग करता रहता है और मादा उसके शरीर को खाती चली जाती है।
वैज्ञानिक जब उसके अध्ययन में थे, तब बड़े हैरान हुए कि क्या उस मकोड़े को यह भी पता नहीं चलता कि मैं मारा जा रहा हूं खाया जा रहा हूं र नष्ट किया जा रहा हूं! मकोड़ा संभोग के बाद मुर्दा ही गिरता है। उसकी लाश को मादा खा जाती है पूरा। बस, एक ही संभोग कर पाता है। दूसरे मकोड़े यह देखते रहते हैं, लेकिन जब उनकी संभोग की वृत्ति जगती है तब वे भूल जाते हैं कि मौत में उतर रहे हैं। तो शरीर शास्त्रियों ने उस मकोड़े का बहुत अध्ययन करके पता लगाया कि उसके शरीर में बड़ी गहरी विषाक्तता है। जब कामवासना पकड़ती है उसको, तो उसे इतना भी होश नहीं रह जाता कि मैं काटा जा रहा हूं मारा जा रहा हूं खाया जा रहा हूं। यह भी भूल जाता है।
आश्चर्यजनक है। लेकिन अगर हम अपने को भी समझें, तो आश्चर्यजनक नहीं मालूम होगा। वह कीड़ा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
वही स्थिति मनुष्य की है। वह जानता है, भलीभांति पहचानता है। फिर वासना पकड़ लेती है, फिर वासना पकड़ लेती है। वासना के बाद अनुभव भी होता है कि व्यर्थ है, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन उस व्यर्थता के बोध का कोई लाभ नहीं होने वाला है, क्योंकि जब तक बेहोशी न टूटे, वह फिर आ जाएगा; जिसको व्यर्थ कहा, वह फिर सार्थक हो जाएगा। इसलिए ऋषि यह नहीं कहते कि उसे दबाओ। वे कहते हैं, इतने जागो, होश की इतनी अग्नि पैदा करो, द फायर आफ अवेकनिंग, कि उसमें सब दग्ध हो जाए। और जब कामवासना दग्ध हो जाती है, तो और शेष वासनाएं अपने आप दग्ध हो जाती हैं। यह कोई फ्रायड की नई खोज नहीं है कि कामवासना सब वासनाओं का केंद्र है। यह तो ऋषि सदा से जानते रहे हैं। यह जिन्होंने भी खोज की है मनुष्य की अंतरात्मा में, वे सदा से जानते रहे हैं कि बाकी सारी वासनाएं कामवासना से ही पैदा होती हैं।
निर्वाण उपनिषद
ओशो
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