वर्धमान तो दीया है, महावीर ज्योति हैं। सिद्धार्थ तो दीया है, बुद्ध
ज्योति हैं। जीसस तो दीया है, क्राइस्ट ज्योति हैं। लेकिन हम दीयों को पकड़
लेते हैं। और महावीर के संबंध में सोचते समय वर्धमान के संबंध में सोचने
लगते हैं! भूल हो गई। और वर्धमान को जो पकड़ लेगा, वह महावीर को कभी नहीं
जान सकेगा। सिद्धार्थ को जो पकड़ लेगा, उसकी बुद्ध से कभी पहचान ही नहीं
होगी। और जीसस को, मरियम के बेटे को जिसने पहचाना, वह क्राइस्ट को,
परमात्मा के बेटे को कभी नहीं पहचान पाएगा। उससे क्या संबंध है! वे दोनों
बात ही अलग हैं। लेकिन हमने दोनों को इकट्ठा कर रखा है–जीसस-क्राइस्ट,
वर्धमान-महावीर, गौतम-बुद्ध दीए और ज्योति को! और ज्योति का हमें कोई पता
नहीं है, दीए को हम पकड़े हैं!
मेरा दीयों से कोई संबंध नहीं है। कोई अर्थ ही नहीं देखता हूं उनमें। और
फिर दीए तो हम हैं ही। इसकी चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। दीए हम सब हैं
ही, ज्योति हम हो सकते हैं, जो हम अभी नहीं हैं। ज्योति की चिंता करनी
चाहिए। तो इधर महावीर को निमित्त बना कर ज्योति का विचार करेंगे। जिनको
महावीर की तरफ से ही ज्योति पहचान में आ सकती है, अच्छा है, वहीं से पहचान आ
जाए। जिनको न आ सकती हो, उनके लिए कुछ और निमित्त बनाया जा सकता है। सब
निमित्त काम दे सकते हैं।
महावीर मेरी दृष्टि में
ओशो
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