बुद्ध या महावीर, कौन बड़ा, कौन छोटा–यह साधारण लोगों की गणित की दुनिया
है, जिससे हम हिसाब लगाते हैं। और साधारण गणित की दुनिया से असाधारण लोगों
को नहीं तौला जा सकता, इसलिए वहां कोई बड़ा-छोटा नहीं है। साधारण से बाहर जो
हुआ, वह बड़े-छोटे की गणना के बाहर हो जाता है।
इसलिए इससे बड़ी भ्रांति कोई और नहीं हो सकती है कि कोई कृष्ण में, कोई
क्राइस्ट में, कोई बुद्ध में, महावीर में तौल करने बैठे। कोई कबीर में,
नानक में, रमण में, कृष्णमूर्ति में कोई तौल करने बैठे। कौन बड़ा, कौन छोटा?
कोई छोटा-बड़ा नहीं है।
लेकिन हमारे मन को बड़ी तकलीफ होती है, अनुयायी के मन को बड़ी तकलीफ होती
है। हमने जिसे पकड़ा है, वह बड़ा होना ही चाहिए। और इसीलिए मैंने कहा कि
अनुयायी कभी नहीं समझ पाता। समझ ही नहीं सकता। अनुयायी कुछ थोपता है अपनी
तरफ से। समझने के लिए बड़ा सरल चित्त चाहिए। अनुयायी के पास सरल चित्त नहीं
होता। विरोधी भी नहीं समझ पाता, क्योंकि वह छोटा करने के आग्रह में होता
है, अनुयायी से उलटी कोशिश में लगा होता है।
प्रेमी समझ पाता है। इसलिए जिसे भी समझना हो उसे प्रेम करना है। और
प्रेम सदा बेशर्त है। अगर कृष्ण को इसलिए प्रेम किया कि तुम मुझे स्वर्ग ले
चलना, तो यह प्रेम शर्तपूर्ण हो गया, इसमें कंडीशन शुरू हो गई। अगर महावीर
को इसलिए प्रेम किया कि तुम्हीं सहारे हो, तुम्हीं पार ले चलोगे भवसागर
के, तो शर्त शुरू हो गई, प्रेम खतम हो गया। प्रेम है बेशर्त। कोई शर्त ही
नहीं है। प्रेम यह नहीं कहता कि तुम मुझे कुछ देना। प्रेम का मांग से कोई
संबंध ही नहीं है। जहां तक मांग है वहां तक सौदा है, जहां तक सौदा है वहां
तक प्रेम नहीं है।
सब अनुयायी सौदा कर रहे हैं, इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नहीं कर पाता। और
विरोधी किसी और से सौदा कर रहा है, इसलिए विरोधी हो गया है। और विरोधी भी
इसीलिए हो गया है कि उसे सौदे का आश्वासन नहीं दिखाई पड़ता कि ये कृष्ण कैसे
ले जाएंगे! तो कृष्ण को उसने छोड़ दिया, इनकार कर दिया। प्रेम का मतलब है
बेशर्त। प्रेम का मतलब है वह आंख, जो परिपूर्ण सहानुभूति से भरी है और
समझना चाहती है। मांग कुछ भी नहीं है।
तो महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा, कोई मांग
नहीं, कोई सौदा नहीं, कोई अनुकरण नहीं, कोई अनुयायी का भाव नहीं, एक
सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि कि एक व्यक्ति हुआ, जिसमें कुछ घटा। हम देखें कि
क्या घटा, पहचानें कि क्या घटा, खोजें कि क्या घटा। इसलिए जैन कभी महावीर
को नहीं समझ पाएगा, उसकी शर्त बंधी है। जैन महावीर को कभी नहीं समझ सकता।
बौद्ध बुद्ध को कभी नहीं समझ सकता।
इसलिए प्रत्येक ज्योति के आस-पास जो अनुयायियों का समूह इकट्ठा होता है,
वह ज्योति को बुझाने में सहयोगी होता है, उस ज्योति को और जलाने में नहीं!
अनुयायियों से बड़ा दुश्मन खोजना बहुत मुश्किल है। इन्हें पता ही नहीं, ये
दुश्मनी कर देते हैं।
महावीर मेरी दृष्टि में
ओशो
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