मैंने सुना
है, एक गुफा
एक पहाड़ की
कंदरा में
छिपी थी—सदियों
से, सदियों—
सदियों से; अनंतकाल से।
गुफाओं की आदत
छिपा होना होता
है। अंधेरे में
ही रही थी।
कुछ ऐसी आडू
में छिपी थी
पत्थरों और
चट्टानों के,
कि सूरज की
एक किरण भी
कभी भीतर
प्रवेश न कर
पाई थी। सूरज
रोज द्वार पर
दस्तक देता
लेकिन गुफा
सुनती न। सूरज
को भी दया आने
लगी कि बेचारी
गुफा जन्मों—जन्मों
से बस अंधेरे
में रही है।
इसे रोशनी का
कुछ पता ही
नहीं। एक दिन
सूरज ने जोर
से आवाज दी।
ऐसी सूरज की
आदत नहीं कि
जोर से आवाज
दे। लेकिन
बहुत दया आ गई
होगी। जन्मों—जन्मों
से गुफा
अंधेरे में
पड़ी है। तो
सूरज ने कहा, बाहर निकल
पागल! देख, बाहर
कैसी रोशनी है।
फूल खिले, पक्षी
गीत गाते, किरणों
का जाल फैला
है। और मैं
तेरे द्वार पर
खड़ा हूं और
बार—बार दस्तक
देता हूं। तू
बहरी है? बाहर
आ।
गुफा ने कहा, मुझे विश्वास नहीं आता। किस गुफा को कब विश्वास आया सूरज की आवाज पर? जब मैं तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता हूं तुम भी कहते हो विश्वास नहीं आता। कौन जाने कोई धोखा देने आया हो, कोई लूटने आया हो। गुफा के पास कुछ है भी नहीं और लूटे जाने का डर है!
गुफा ने कहा, मुझे विश्वास नहीं आता। किस गुफा को कब विश्वास आया सूरज की आवाज पर? जब मैं तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता हूं तुम भी कहते हो विश्वास नहीं आता। कौन जाने कोई धोखा देने आया हो, कोई लूटने आया हो। गुफा के पास कुछ है भी नहीं और लूटे जाने का डर है!
लेकिन सूरज
रोज दस्तक
देता रहा।
आखिर एक दिन
गुफा को आना
ही पड़ा। सोचा, एक दिन चल कर
जरा झांक कर
देख लें। न तो
फूलों का
भरोसा था कि
फूल हो सकते
हैं; क्योंकि
जो देखा न हो
उसका भरोसा
कैसे? न
रोशनी का
भरोसा था; क्योंकि
रोशनी जानी ही
न थी। तो
रोशनी का
अनुभव न हो, आभास भी न
हुआ हो तो
प्रत्यभिज्ञा
कैसे हो? पहचान
कैसे हो? आकांक्षा
कैसे जगे? उसी
को तो हम
चाहते हैं
जिसका थोड़ा
स्वाद लिया हो।
न भरोसा था कि
पक्षियों के
गीत होते हैं।
पक्षियों का
ही पता न था।
गुफा तो बस
अपने अंधेरे...
अपने अंधेरे...
अपने अंधेरे
में डूबी रही
थी। उस दिन
बाहर आई डरती—डरती,
सकुचाती।
तुम्हें जब
मैं देखता हूं
संन्यास में
उतरते तो मुझे
उस गुफा की
याद आती है—डरते—डरते, सकुचाते।
ऐसे आते हो कि
अगर जरा लगे
कि बात गड़बड़
है तो खिसक
जाओ। सम्हाल—सम्हाल
कर कदम रखते
हो। लौटने का
उपाय तोड़ते
नहीं। लौटने
की पूरी
व्यवस्था
रखते हो कि
अगर कुछ धोखाधड़ी
हो तो लौट
जाएं।
ऐसी गुफा आई, आई तो चौंक
गई। आई तो
रोने लगी। आई
तो आंख आंसुओ
से भर गई।
छाती पीटने
लगी कि जनम जनम
मैंने अंधेरे
में गुजारा।
तुमने दया
पहले क्यों न
की? तुमने
पहले क्यों न
पुकारा?
वासना बोध
की
अनुपस्थिति
है। बोध आया, वासना गई।
जब तक बोध
नहीं है तब तक
वासना है।
वासना से मत
भागो। इसलिए
कहता हूं भागो
मत, जागो।
जगाओ, भीतर
जो सोया है
उसे। मन से
घबड़ाओ मत। मन
की मौजूदगी
कुछ भी खंडित
नहीं कर सकती
है। शरणार्थी
मत बनो, विजेता
बनो। जगाओ
अपने को।
लेकिन आदमी
सोया ही चला
जाता। मरते दम
तक, मौत भी
आ जाती है तो
भी आदमी सोया
ही रहता।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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