आप ही मुश्किल में पड़ जाएंगे, ऐसा नहीं है, बड़े-बड़े चिंतक, विचारक,
दार्शनिक भी समय के संबंध में उलझन से भरे हैं। अब तो विज्ञान भी समय के
संबंध में चिंता से भर गया
है कि समय क्या है? जो-जो सिद्धांत समय के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं, उनसे, कोई से भी कुछ हल नहीं होता।
कुछ बातें समझनी जरूरी हैं। क्यों इतनी उलझन है समय के साथ? क्या कारण
होगा कि हम समय को अनुभव करते हैं, नहीं भी करते हैं? क्या कारण होगा कि
प्रकट रूप से समय हमारी समझ में नहीं आता है?
पहली बात मछलियों को भी सागर समझ में नहीं आता है; जब तक मछली को सागर
के किनारे कोई उठा कर फेंक न दे, तब तक सागर का पता भी नहीं चलता है। सागर
में ही मछली पैदा हो, और सागर में ही मर जाए, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि
सागर क्या था। क्योंकि जिसे जानना है, उससे थोड़ी दूरी चाहिए। जिसमें हम
घिरे हों, उसे जाना नहीं जा सकता। ज्ञान के लिए फासला चाहिए।
फासला न हो तो ज्ञान नहीं हो सकता। तो मछली को अगर कोई सागर के किनारे मछुआ
पकड़ कर डाल दे रेत में, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर क्या था। सागर
के बाहर होकर पता चलता है कि क्या है सागर! जब सागर नहीं होता है तब पता
चलता है कि सागर क्या था! नकार से पता चलता है कि विधेय क्या था! न-होने से
पता चलता है कि होना क्या था! रेत पर जब मछली तड़पती है, तब उस तड़पने में
उसे पता चलता है कि सागर मेरा जीवन था! सागर मुझे घेरे था, सागर के कारण ही
मैं थी, और सागर के बिना मैं न हो सकूंगी!
समय भी ऐसे ही मनुष्य को घेरे हुए है। और जटिलता थोड़ी ज्यादा है। सागर
के किनारे तो फेंकी जा सकती है मछली, समय के किनारे मनुष्य को फेंकना इतना
आसान नहीं है। और मछली को तो कोई दूसरा मछुआ सागर के किनारे तो फेंक सकता
है रेत में, आपको कोई दूसरा आदमी समय के किनारे रेत में नहीं फेंक सकता। आप
ही चाहें तो फेंक सकते हैं। मछली खुद ही छलांग ले ले, तो ही किनारे पर
पहुंच सकती है।
ध्यान समय के बाहर छलांग है।
इसलिए ध्यानियों ने कहा है: ध्यान है कालातीत, बियांड टाइम।
समाधी के सप्तद्वार
ओशो
No comments:
Post a Comment