मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में पड़ गया है। वह सम्राट की पत्नी है। मुल्ला उससे बिदा हो रहा है। रात चार बजे उसने उससे कहा कि तुझसे सुंदर स्त्री मैंने अपने जीवन में न देखी और न मैं सोच भी सकता हूं कि तुझसे सुंदर स्त्री हो सकती है। तू अनूठी है। तू परमात्मा की अदभुत कृति है। स्त्री फूल गई, जैसा कि सभी स्त्रियां फूल जाती हैं। उस क्षण जमीन पर उसके पैर न रहे। लेकिन मुल्ला मुल्ला ही था। जब उसने उसे इतना फूला देखा, उसने कहा, लेकिन एक बात और, जस्ट फार योर इकामेंशन न, यह बात मैं और स्त्रियों से भी पहले कह चुका हूं। और वायदा नहीं कर सकता कि आगे और स्त्रियों से नहीं कहूंगा।
वह स्त्री, जो एकदम आनंद की मूर्ति हो गई थी, कुरूप हो गई। प्रेम एकदम सूखा हुआ मालूम पड़ा। सब नष्ट हो गया। सपने खंडहर होकर गिर गए। मुल्ला ने एक सत्य कह दिया। सभी प्रेमी यही कहते हैं, लेकिन जब कहते हैं, तब इतने भाव से कहते हैं कि वे भी भूल जाते हैं कि यह बात हम पहले भी कह चुके हैं।
मुल्ला एक स्त्री के प्रेम में है, लेकिन शादी को टालता चला जाता है। आखिर उस स्त्री ने कहा कि अंतिम निर्णय हो जाना चाहिए। आज आखिरी बात। शादी करनी है या नहीं? अब टालना नहीं हो सकता। मुल्ला ने कहा, भ्रम जब बहुत ताजे थे, तभी शादी हो जाती, तो हो जाती। अब तो भ्रम बहुत बासे पड़ गए हैं। अब तो हम उस हालत में हैं कि अगर शादी हो गई होती, तो तलाक का इंतजाम हो रहा होता। उस स्त्री ने कहा, दरवाजे से बाहर निकल जाओ। मुल्ला ने कहा, जाता हूं लेकिन मेरे प्रेम पत्र लौटा दो। स्त्री ने कहा कि क्या मतलब, क्या करोगे प्रेम पत्रों का? मुल्ला ने कहा, फिर भी जरूरत पड़ेगी ही। तो दुबारा लिखने की झंझट कौन करे। और फिर मैंने ये एक प्रोफेशनल राइटर से लिखवाए थे, पैसा खर्च किया था!
वही भ्रम बार बार खड़ा करना पड़ता है। जीना मुश्किल है। एक कदम चलना मुश्किल है। इसलिए गृहस्थ उसे कहें हम, जो बिना भ्रम के नहीं जी सकता। अगर इसकी ठीक मनोवैज्ञानिक परिभाषा करनी हो, तो गृहस्थ वह है, द वन हू कैन नाट लिव विदाउट इन्यूजन्स। उसे भ्रमों के घर बनाने ही पडेंगे, उसे कदम—कदम पर भ्रम की सीढ़ियां निर्मित करनी पड़ेगी।
संन्यासी वह है, जो बिना भ्रम के रहने के लिए तैयार हो गया। जो कहता है, सत्य के साथ ही रहेंगे, चाहे सत्य जार जार कर दे, तोड़ दे, खंड खंड कर दे, मिटा दे, नष्ट कर दे, लेकिन अब हम सत्य जैसा है, उसके साथ ही रहेंगे। अब हम भ्रम खड़े न करेंगे।
इसलिए संन्यासी भ्रमों को तोड़ने में लगा रहता है, भ्रांतियों को तोड़ने में लगा रहता है। जहां जहां उसे लगता है, भ्रातिया खड़ी की जा रही हैं, वहा वहां वह तोड़ता है। मन के प्रति सजग होता है कि मन कहा कहा भ्रांतियां खड़ी करवाता है। देखता है अपने चारों तरफ कि मैं कोई सपने तो नहीं रच रहा हूं जागने में या सोने में। मैं बिना सपने के जीऊंगा।
निर्वाण उपनिषद
ओशो
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