दोनों वक्तव्य अलग अलग घड़ियों में दिए गए वक्तव्य हैं।
अलग अलग लोगों को दिए गए वक्तव्य हैं। विरोध जरा भी नहीं है।
समझो। जीसस ने कहा है : मांगो और मिलेगा। खटखटाओ और द्वार खुलेंगे।
खोजो और पाओगे। बिलकुल ठीक बात है। जो खोजेगा ही नहीं, वह कैसे पाएगा? जो
मांगेगा ही नहीं, उसे कैसे मिलेगा? और जो द्वार पर दस्तक भी न देगा, उसके
लिए द्वार कैसे खुलेंगे? सीधी साफ बात है। यह एक तल का वक्तव्य है।
जीसस जिनसे बोल रहे थे, जिन लोगों से बोल रहे थे, इनके लिए जरूरी था।
ऐसा ही वक्तव्य जरूरी था। इस वक्तव्य में खयाल रखना वे लोग, जिनसे जीसस बोल
रहे थे। ये ऐसे लोग थे, जिन्होंने जीसस को सूली पर लटकाया। इन लोगों के
पास अध्यात्म जैसी कोई चित्त की दशा नहीं थी। नहीं तो ये जीसस को सूली पर
लटकाते!
लाओत्सु का वचन ठीक इससे उलटा लगेगा तुम्हें; वही मेरा वचन भी है।
लाओत्सु कहता है. मांगा और चूक जाओगे। खोजा और भटके। खोजो मत और पा लो। यह
कुछ और तल का वक्तव्य है। यह किन्हीं और तरह के लोगों से कहा गया है।
लाओत्सु पर किसी ने पत्थर भी नहीं मारा। सूली की तो बात अलग। जिनके बीच लाओत्सु रहा होगा, ये बड़े अदभुत लोग थे।
अलग अलग कक्षाओं में ये बातें कही गयी थीं। पहली कक्षा में बच्चे को
कहना पड़ता है. ग गणेश का। अब विश्वविद्यालय की अंतिम कक्षा में भी अगर यही
कहा जाए ग गणेश का, तो मूढ़ता हो जाएगी। और दोनों जरूरी हैं।
जीसस जिनसे बोल रहे थे, वे बिलकुल प्राथमिक कक्षा के विद्यार्थी थे। और
लाओत्सु जिनसे बोल रहा था, वह आखिरी चरम कोटि की बात बोल रहा था।
मगर फिर भी वक्तव्य विरोधी लगते हैं। तुम्हें हैरानी होगी कि मान लो यह
भी ठीक है कि पहली कक्षा में कहते हैं : ग गणेश का। तो आखिरी कक्षा में यह
थोडे ही कहते हैं कि ग गणेश का नहीं! रहता तो ग गणेश का ही है। विद्यार्थी
जान गए, इसलिए अब कहना नहीं पड़ता कि ग गणेश का।
वक्तव्य फिर भी विरोधी लगते हैं। क्योंकि जितना फासला पहली कक्षा में और
विश्वविद्यालय की कक्षा में होता है, वह फासला विपरीतता का नहीं है। वह एक
ही श्रृंखला का है। और सांसारिक व्यक्ति में और आध्यात्मिक व्यक्ति में जो
फासला होता है, वह विपरीतता का है, एक ही श्रृंखला का नहीं है।
एक जगह जाकर इस जगत के सारे सत्य उलटे हो जाते हैं। समझने की कोशिश करोगे, तो समझ में आ जाएगा।
पहली बात : जिसने कभी खोजा ही नहीं, वह कैसे खोज पाएगा। और लाओत्सु कहता
है. जो खोजता ही रहा, वह कैसे खोज पाएगा? एक जगह आनी चाहिए, जहां खोज भी
छूट जाए। नहीं तो खोज की ही चिंता, खोज की ही आपा धापी, खोज की ही भाग दौड़
मन को घेरे रहेगी।
एक आदमी भागा चला जा रहा है। वह कहता है मंजिल पर जाना है। भाग्ता नहीं,
तो कैसे पहुंचूंगा? फिर यह मंजिल पर पहुंचकर भी भागता रहे, तो यह कैसे
पहुंचेगा? तो इस आदमी को हमें उलटी बातें कहनी पड़ेगी। इससे कहना पड़ेगा. जब
मंजिल से दूर हो, तो मंजिल की तरफ भागो। और जब मंजिल करीब आने लगे, तो दौड़
कम करने लगो। और जब मंजिल बिलकुल आ जाए, तो रुक जाओ। अगर मंजिल पर आकर भी
भागते रहे, तो चूक जाओगे।
एक दिन भागना पड़ता है और एक दिन रुकना भी पड़ता है। एक दिन चलना पड़ता है और एक दिन ठहरना भी पड़ता है। इनमें विपरीतता नहीं है।
एक दिन श्रम करो, प्रयास करो, योग साधो। और फिर एक दिन सब साधना को भी
पानी में बहा दो। और खाली बैठे रह जाओ। तो ही पहुंचोगे। नहीं तो अक्सर यह
हो जाता है कि परमात्मा को पाने की दौड़ में तुम्हारा चित्त नया संसार बना
लेता है। फिर चित्त के भीतर हजार तरह के विचार उठने लगते हैं, तरंगें उठने
लगती हैं।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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