जननेंद्रिय के काटने से कामवासना का कोई छुटकारा नहीं हो
सकता। क्योंकि कामवासना अगर जननेंद्रिय में ही होती पूरी, तो भी कोई बात थी। कामवासना तो मस्तिष्क में है,
गहरे में है।
जननेंद्रिय तो मस्तिष्क का ही एक हिस्सा है। और जो सुख मिलता है संभोग का, वह जननेंद्रिय के तल पर नहीं मिलता, वह मिलता तो मस्तिष्क के तल पर है।
आपको ज्यादा भोजन में रस है, तो लोग उपवास कर लेते हैं लेकिन उसी तल पर। जहा जबर्दस्ती भर रहे थे शरीर में, अब जबर्दस्ती रोक लेते हैं। लेकिन तल नहीं बदलता। और जब तक तल न बदले, तब तक जीवन में कोई क्राति नहीं हो सकती। सिर्फ ऊंचा तल नीचे तल का मालिक हो सकता है। दूसरी बात। तीसरी बात स्मरण रखें कि अगर आप उसी तल पर व्यवस्था जुटाने की कोशिश करेंगे, तो आपके जीवन में दमन, रिप्रेशन हो जाएगा। और सारी जिंदगी विषाक्त हो जाएगी। लेकिन अगर दूसरे तल को आप सजग करते हैं, तो दमन की कोई भी जरूरत नहीं है। दूसरे तल की शक्ति के मौजूद होते ही पहला तल विनत हो जाता है, झुक जाता है।
मन है और मन की ही सारी कठिनाई है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, इस मन से कैसे छुटकारा हो? लेकिन मन से छुटकारे का वे जो भी उपाय करते हैं, वह भी सब मन का ही काम है। मन से छुटकारे के लिए मंदिर चले जाते हैं। वह मंदिर भी मन का बनाया हुआ खेल है। मन से छुटकारे के लिए शास्त्र पढ़ने लगते हैं। वे शास्त्र भी मन से निर्मित हुए हैं। मन से छूटने के लिए मंत्रोच्चार करने लगते हैं। वे मंत्रोच्चार मन की ही परिधि में हैं। माला जपने लगते हैं। व्रत नियम ले लेते हैं। कसमें खा लेते हैं। वे कसमें भी मन ही खा रहा है।
एक मित्र मेरे पास आए। उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया। लेकिन व्रत लेने से कहीं ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है! अगर इतना आसान होता, तो व्रत लेने की क्या कठिनाई थी? उन्होंने मुझे आकर कहा कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। यह व्रत ले लिया है, लेकिन यह सध तो नहीं रहा है। और मन तो बेचैन है। और इतना बेचैन कभी भी नहीं था, जितना अब है। और इतनी वासना भी कभी मन में नहीं थी, जितनी अब है। जब से यह व्रत लिया है, तब से ऐसा हो गया है कि मन में सिवाय वासना के और कुछ भी नहीं है। पहले तो कुछ और बातें भी सोच लेता था। अब तो बस एक ही धुन लगी है!
व्रत लेते ही नासमझ हैं। समझदार व्रत नहीं लेता। समझदार विवेक को जगाता है, व्रत नहीं लेता। क्योंकि व्रत का मतलब है, उसी तल पर उपद्रव करना। जैसे एक छोटी सी कक्षा है और उसमें बच्चे लड़ रहे हैं और शोरगुल मचा रहे हैं। और शिक्षक कमरे में प्रवेश कर जाए, एकदम सन्नाटा हो जाता है। बच्चे अपनी जगह बैठ गए हैं, किताबें उन्होंने खोल ली हैं, जैसे कि कहीं कुछ भी नहीं हो रहा था। एक दूसरे तल की शक्ति कमरे के भीतर आ गई। उसकी मौजूदगी रूपांतरण है।
जैसे ही आप ऊंचे तल की शक्ति को जगा लेते हैं, नीचे तल का संघर्ष, उपद्रव एकदम शांत हो जाता है। यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि जहां भी आपके जीवन में अड़चन हो, सीधे उससे लड़ने मत लग जाना। उसके पीछे की शक्ति को जगाने की कोशिश करना।
तो जो मुझसे पूछते हैं, मन को कैसे शांत करें, उनको मैं कहता हूं : मन की फिकर ही मत करो। मन को कुछ मत करो। तुम विवेक को जगाओ; तुम होश से भर जाओ। मन के साथ संघर्ष मत करो, क्योंकि संघर्ष करने वाला मन ही होगा। यह जो शांत होने के लिए कह रहा है, यह भी मन ही तो है।
कभी आप मन के
उस हिस्से से
राजी हो जाते
हैं, जो
वासना से भरा
है। और कभी मन
के उस हिस्से
से राजी हो
जाते हैं, जो
व्रत, संकल्प,
साधना की
बातें सोचता
है। यह बदलता
रहता है, घड़ी
के पेंडुलम की
तरह। एक क्षण
यह, दूसरे
क्षण वह।
क्योंकि
दोनों हाथ
आपके हैं।
संघर्ष
के तल के ऊपर, पीछे, गहरे
में कोई तत्व
खोजना जरूरी
है, जो जाग
सके। विवेक
बुद्धि का सार
है। विवेक का
अर्थ है, एक
प्रकार की
सजगता, एक
तरह का होश।
कार्य में, विचार में, एक तरह की
सावधानी, एक
तरह का सतत
स्मरण, अवेयरनेस।
कठोपनिषद
ओशो
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